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{{ज्ञानसन्दूक व्यक्ति
| image =
| caption=व्यास, ऋषि, जिन्होंने परंपरा के अनुसार, उपनिषदों की रचना की।
}}
{{हिन्दू धर्म सूचना मंजूषा}}
'''उपनिषद्''' हिन्दू धर्म के महत्त्वपूर्ण [[श्रुति]] [[धर्मग्रन्थ]] हैं। ये वैदिक वाङ्मय के अभिन्न भाग हैं। ये [[संस्कृत]] में लिखे गये हैं। इनकी संख्या लगभग १०८ है, किन्तु [[मुख्य उपनिषद]] १३ हैं। हर एक उपनिषद किसी न किसी [[वेद]] से जुड़ा हुआ है। इनमें [[परमेश्वर]], [[परमात्मा]]-[[ब्रह्म]] और [[आत्मा]] के स्वभाव और सम्बन्ध का बहुत ही दार्शनिक और ज्ञानपूर्वक वर्णन दिया गया है।
उपनिषदों में [[कर्मकाण्ड]] को 'अवर' कहकर ज्ञान को इसलिए
उपनिषद् भारतीय सभ्यता की अमूल्य धरोहर है। उपनिषद ही समस्त भारतीय दर्शनों के मूल स्रोत हैं, चाहे वो [[वेदान्त]] हो या [[सांख्य]]। उपनिषदों को स्वयं भी '[[वेदान्त]]' कहा गया है। १७वीं सदी में [[दारा शिकोह]] ने अनेक उपनिषदों का [[फारसी]] में [[अनुवाद]] कराया। 19वीं सदी में जर्मन तत्त्ववेता [[आर्थर शोपेनहावर|शोपेनहावर]] ने इन ग्रन्थों में जो रुचि दिखलाकर इनके अनुवाद किए वह सर्वविदित हैं और माननीय हैं। विश्व के कई दार्शनिक उपनिषदों को सबसे बेहतरीन ज्ञानकोश मानते हैं।
उपनिषद भारतीय आध्यात्मिक चिन्तन के मूल आधार हैं, भारतीय आध्यात्मिक दर्शन के स्रोत हैं। वे ब्रह्मविद्या हैं। जिज्ञासाओं के ऋषियों द्वारा खोजे हुए उत्तर हैं। वे चिन्तनशील ऋषियों की ज्ञानचर्चाओं का सार हैं। वे कवि-हृदय ऋषियों की काव्यमय आध्यात्मिक रचनाएँ हैं, अज्ञात की खोज के प्रयास हैं, वर्णनातीत परमशक्ति को शब्दों में प्रस्तुत करनेकि की कोशिशें हैं और उस निराकार, निर्विकार, असीम, अपार को अन्तरदृष्टि से समझने और परिभाषित करने की अदम्य आकांक्षा के लेखबद्ध विवरण हैं।<ref>{{Cite web |url=https://hindi.webdunia.com/hindu-religion/upanishads-116051700033_1.html |title=उपनिषद क्या हैं, आइए समझें |access-date=28 सितंबर 2019 |archive-url=https://web.archive.org/web/20190402165640/http://hindi.webdunia.com/hindu-religion/upanishads-116051700033_1.html |archive-date=2 अप्रैल 2019 |url-status=dead }}</ref>
[[चित्र:MS Indic 37, Isa upanisad. Wellcome L0027330.jpg|center|450px|thumb|'''ईशोपनिषद्''' की पाण्डुलिपि का एक पन्ना]]
== उपनिषद शब्द का अर्थ ==
'''उपनिषद्''' शब्द का साधारण अर्थ है - ‘समीप उपवेशन’ या 'समीप बैठना' (ब्रह्म विद्या की प्राप्ति के लिए शिष्य का गुरु के पास बैठना)। यह शब्द ‘उप’, ‘नि’ उपसर्ग तथा, ‘सद्’ धातु से निष्पन्न हुआ है। सद् धातु के तीन अर्थ हैं : विवरण-नाश होना ; गति-पाना या जानना तथा अवसादन-शिथिल होना। उपनिषद् में ऋषि और शिष्य के बीच बहुत सुन्दर और गूढ संवाद है जो पाठक को [[वेद]] के मर्म तक पहुंचाता है।
== भूगोल ==
[[File:Late Vedic Culture (1100-500 BCE).png|thumb|400px|right|उत्तर वैदिक काल का भूगोल]]
प्रारंभिक उपनिषदों की रचना का सामान्य क्षेत्र उत्तरी भारत माना जाता है। यह क्षेत्र पश्चिम में ऊपरी सिंधु घाटी, पूर्व में निचले गंगा क्षेत्र, उत्तर में हिमालय की तलहटी और दक्षिण में विंध्य पर्वत शृंखला से घिरा है।<ref name="Bronkhorst">Bronkhorst, Johannes (2007). ''Greater Magadha: Studies in the Culture of Early India'', pp. 258-259. BRILL.</ref>{{sfn|King|1995|p=52}}
विद्वानों को यथोचित विश्वास है कि प्रारंभिक उपनिषदों की रचना कुरु-पंचाल और कोसल-विदेह क्षेत्र के साथ-साथ इनके ठीक दक्षिण और पश्चिम के क्षेत्रों में हुआ था। इस क्षेत्र में आधुनिक [[बिहार]], [[नेपाल]], [[उत्तर प्रदेश]], [[उत्तराखण्ड|उत्तराखंड]], [[हिमाचल प्रदेश]], [[हरियाणा]], [[राजस्थान|पूर्वी राजस्थान]] और [[मध्य प्रदेश|उत्तरी मध्य प्रदेश]] शामिल हैं।<ref name="olivelleintro">Patrick Olivelle (2014), ''The Early Upanishads,'' Oxford University Press, {{ISBN|978-0195124354}}, pages 12-14.</ref>
हालाँकि व्यक्तिगत उपनिषदों के सटीक स्थानों की पहचान करने के लिए हाल ही में महत्वपूर्ण प्रयास किए गए हैं, लेकिन परिणाम अस्थायी हैं। विट्जेल बृहदारण्यक उपनिषद में गतिविधि के केंद्र की पहचान विदेह के क्षेत्र के रूप में करते हैं, जिसके राजा जनक का उल्लेख उपनिषद में प्रमुखता से है।
{{sfn|Olivelle|1998|p=xxxviii}} [[छांदोग्य उपनिषद]] की रचना संभवतः भारतीय उपमहाद्वीप में पूर्वी से अधिक पश्चिमी स्थान पर की गई थी, संभवतः कुरु-पांचाल देश के पश्चिमी क्षेत्र में कहीं।{{sfn|Olivelle|1998|p=xxxix}}
प्रमुख उपनिषदों की तुलना में [[मुक्तिका उपनिषद्]] में उल्लिखित नए उपनिषद पूरी तरह से अलग क्षेत्र, शायद दक्षिणी भारत से संबंधित हैं, और अपेक्षाकृत हाल के हैं। [[कौशितकी उपनिषद्|कौशीतकी उपनिषद]] के चौथे अध्याय में काशी (आधुनिक [[बनारस|बनारस]]) नामक स्थान का उल्लेख है।<ref name=olivelleintro/>
== विषय-वस्तु ==
[[चित्र:Schopenhauer.jpg|right|thumb|250px|19वीं शताब्दी के जर्मन दार्शनिक '''[[आर्थर शोपेनहावर]]''' उपनिषदों से अत्यन्त प्रभावित थे। उनका कहना था कि इनमें 'मानव के श्रेष्ठतम ज्ञान' का सृजन हुआ है।]]
उपनिषदों में मुख्य रूप से 'आत्मविद्या' का प्रतिपादन है, जिसके अन्तर्गत [[ब्रह्म]] और [[आत्मा]] के स्वरूप, उसकी प्राप्ति के साधन और आवश्यकता की समीक्षा की गयी है। [[आत्मज्ञान|आत्मज्ञानी]] के स्वरूप, [[मोक्ष]] के स्वरूप आदि अवान्तर विषयों के साथ ही [[विद्या]], [[अविद्या]], श्रेयस, प्रेयस, आचार्य आदि तत्सम्बद्ध विषयों पर भी भरपूर चिन्तन उपनिषदों में उपलब्ध होता है। वैदिक ग्रन्थों में जो दार्शनिक और आध्यात्मिक चिन्तन यत्र-तत्र
उपनिषदों में सर्वत्र समन्वय की भावना है। दोनों पक्षों में जो ग्राह्य है, उसे ले लेना चाहिए। दृष्टि से [[ज्ञानमार्ग]] और [[कर्ममार्ग]], [[विद्या]] और [[अविद्या]], संभूति और असंभूति के समन्वय का उपदेश है। उपनिषदों में कभी-कभी [[ब्रह्मविद्या]] की तुलना में [[कर्मकाण्ड]] को बहुत हीन बताया गया है। [[ईशावास्योपनिषद|
उपनिषद् [[ब्रह्मविद्या]] का द्योतक है। कहते हैं इस विद्या के अभ्यास से मुमुक्षुजन की [[अविद्या]] नष्ट हो जाती है (विवरण); वह ब्रह्म की प्राप्ति करा देती है (गति); जिससे मनुष्यों के गर्भवास आदि सांसारिक दुःख सर्वथा शिथिल हो जाते हैं (अवसादन)। फलतः उपनिषद् वे ‘तत्त्व’ प्रतिपादक ग्रन्थ माने जाते हैं जिनके अभ्यास से मनुष्य को ब्रह्म अथवा परमात्मा का साक्षात्कार होता है।
===उपनिषदों की कथाएँ===
उपनिषदों में देवता-दानव, ऋषि-मुनि, पशु-पक्षी, पृथ्वी, प्रकृति, चर-अचर, सभी को माध्यम बना कर रोचक और प्रेरणादायक कथाओं की रचना की गयी है। इन कथाओं की रचना वेदों की व्याख्या के उद्देश्य से की गई। जो बातें वेदों में जटिलता से कही गयी
उपनिषद् गुरु-शिष्य परम्परा के आदर्श उदाहरण हैं। प्रश्नोत्तर के माध्यम से सृष्टि के गूढ़ रहस्यों का उद्घाटन उपनिषदों में सहज ढंग से किया गया है। विभिन्न दृष्टान्तों, उदाहरणों, रूपकों, संकेतों और युक्तियों द्वारा आत्मा, परमात्मा, ब्रह्म आदि का स्पष्टीकरण इतनी सफलता से उपनिषद् ही कर सके हैं।
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== उपनिषदकाल के पहले : वैदिक युग ==
वैदिक युग सांसारिक आनन्द एवं उपभोग का युग था। मानव मन की निश्चिंतता, पवित्रता, भावुकता, भोलेपन व निष्पापता का युग था। जीवन को संपूर्ण अल्हड़पन से जीना ही उस काल के लोगों का प्रेय व श्रेय था। प्रकृति के विभिन्न मनोहारी स्वरूपों को देखकर उस समय के लोगों के भावुक मनों में जो उद्गार स्वयंस्फूर्त आलोकित तरंगों के रूप में उभरे उन मनोभावों को उन्होंने प्रशस्तियों, स्तुतियों, दिव्यगानों व काव्य रचनाओं के रूप में शब्दबद्ध किया और वे वैदिक ऋचाएँ या मंत्र बन गए। उन लोगों के मन सांसारिक आनंद से भरे थे, संपन्नता से संतुष्ट थे, प्राकृतिक दिव्यताओं से भाव-विभोर हो उठते थे। अत: उनके गीतों में यह कामना है कि यह आनंद सदा बना रहे, बढ़ता रहे और कभी समाप्त न हो। उन्होंने कामना की कि इस आनंद को हम पूर्ण आयु सौ वर्षों तक भोगें और हमारे बाद की पीढियाँ भी इसी प्रकार तृप्त रहें। यही नहीं कामना यह भी की गई कि इस जीवन के समाप्त होने पर हम स्वर्ग में जाएँ और इस सुख व आनंद की निरंतरता वहाँ भी बनी रहे। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए विभिन्न अनुष्ठान भी किए गए और देवताओं को प्रसन्न करने के आयोजन करके उनसे ये वरदान भी माँगे गए। जब प्रकृति करवट लेती थी तो प्राकृतिक विपदाओं का सामना होता था। तब उन विपत्तियों केकाल्पनिक नियंत्रक देवताओं यथा मरुत, अग्नि, रुद्र आदि को तुष्ट व प्रसन्न करने के अनुष्ठान किए जाते थे और उनसे प्रार्थना की जाती थी कि ऐसी विपत्तियों को आने न दें और उनके आने पर प्रजा की रक्षा करें। कुल मिलाकर वैदिक काल के लोगों का जीवन प्रफुल्लित, आह्लादमय, सुखाकांक्षी, आशावादी और जिजीविषापूर्ण था। उनमें विषाद, पाप या कष्टमय जीवन के विचार की छाया नहीं थी। नरक व उसमें मिलने वाली यातनाओं की कल्पना तक नहीं की गई थी। कर्म को यज्ञ और यज्ञ को ही कर्म माना गया था और उसी के सभी सुखों की प्राप्ति तथा संकटों का निवारण हो जाने की अवधारणा थी। यह जीवनशैली दीर्घकाल तक चली। पर ऐसा कब तक चलता। एक न एक दिन तो मनुष्य के अनंत जिज्ञासु मस्तिष्क में और वर्तमान से कभी संतुष्ट न होने वाले मन में यह जिज्ञासा, यह प्रश्न उठना ही था कि प्रकृति की इस विशाल रंगभूमि के पीछे सूत्रधार कौन है, इसका सृष्टा/निर्माता कौन है, इसका उद्गम कहाँ है, हम कौन हैं, कहाँ से आए हैं, यह सृष्टि अंतत: कहाँ जाएगी। हमारा क्या होगा? शनै:-शनै: ये प्रश्न अंकुरित हुए। और फिर शुरू हुई इन सबके उत्तर खोजने की ललक तथा जिज्ञासु मन-मस्तिष्क की अनंत खोज यात्रा।
कुछ लोगों की जीवन देखने की क्षमता गहरी होने लगी, जिसकी वजह से उनको जीवन चक्र दिखने लगा। जीवन में सुख और
इसी "ना" से उपनिषद का आरम्भ हुआ।
== उपनिषदकालीन विचारों का उदय ==
ऐसा नहीं है कि आत्मा, पुनर्जन्म और कर्मफलवाद के विषय में वैदिक ऋषियों ने कभी सोचा ही नहीं था। ऐसा भी नहीं था कि इस जीवन के बारे में उनका कोई ध्यान न था। ऋषियों ने यदा-कदा इस विषय पर विचार किया भी था। इसके बीज वेदों में यत्र-तत्र मिलते हैं, परंतु यह केवल विचार मात्र था। कोई चिंता या भय नहीं। आत्मा शरीर से भिन्न
प्रकृति के प्रत्येक रूप में एक नियंत्रक देवता की कल्पना करते-करते वैदिक आर्य बहुदेववादी हो गए थे। उनके देवताओं में उल्लेखनीय हैं- इंद्र, वरुण, अग्नि, सविता, सोम, अश्विनीकुमार, मरुत, पूषन, मित्र, पितर, यम आदि। तब एक बौद्धिक व्यग्रता प्रारंभ हुई उस एक परमशक्ति के दर्शन करने या उसके वास्तविक स्वरूप को समझने की कि जो संपूर्ण सृष्टि का रचयिता और इन देवताओं के ऊपर की सत्ता है। इस व्यग्रता ने उपनिषद के चिंतनों का मार्ग प्रशस्त किया।
== उपनिषदों का स्वरूप ==
संक्षेप में, वेदों में इस संसार में दृश्यमान एवं प्रकट प्राकृतिक शक्तियों के स्वरूप को समझने, उन्हें अपनी कल्पनानुसार विभिन्न देवताओं का जामा पहनाकर उनकी आराधना करने, उन्हें तुष्ट करने तथा उनसे सांसारिक सफलता व संपन्नता एवं सुरक्षा पाने के प्रयत्न किए गए थे। उन तक अपनी श्रद्धा को पहुँचाने का माध्यम यज्ञों को बनाया गया था। उपनिषदों में उन अनेक प्रयत्नों का विवरण है जो इन प्राकृतिक शक्तियों के पीछे की परमशक्ति या सृष्टि की सर्वोच्च सत्ता से साक्षात्कार करने की मनोकामना के साथ किए गए। मानवीय कल्पना, चिंतन-क्षमता, अंतर्दृष्टि की क्षमता जहाँ तक उस समय के दार्शनिकों, मनीषियों या ऋषियों को पहुँचा सकीं उन्होंने पहुँचने का भरसक प्रयत्न किया। यही उनका तप था।
== उपनिषदों का वर्गीकरण ==
वर्तमान समय में २०० से अधिक ग्रन्थ हैं जिन्हे 'उपनिषद' नाम से अभिहित किया जाता है। [[मुक्तिका उपनिषद्]] में १०८ उपनिषदों की सूची दी गयी है जिसमें मुक्तिका उपनिषद स्वयं १०८वें स्थान पर है। उपनिषदों को अनेक प्रकार से वर्गीकृत किया जाता है।
===वेद से सम्बन्ध के आधार पर ===
[[संहिता|वैदिक संहिताओं]] के अनन्तर वेद के तीन प्रकार के ग्रन्थ हैं-
किसी उपनिषद का सम्बन्ध किस वेद से है, इस आधार पर उपनिषदों को निम्नलिखित श्रेणियों में विभाजित किया जाता है-
(१) '''ऋग्वेदीय''' -- १० उपनिषद्
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'''कुल''' -- १०८ उपनिषद्
इनके अतिरिक्त नारायण, नृसिंह, रामतापनी तथा गोपाल चार उपनिषद् और हैं।
<center>
{| class="wikitable"
|+वेद-उपनिषद संबंध
! वेद !!संख्या{{sfn|Parmeshwaranand|2000|pp=404–406}}!! |मुख्य<ref name=PeterHeehs>Peter Heehs (2002), Indian Religions, New York University Press, {{ISBN|978-0814736500}}, pages 60-88</ref>!!सामान्य !!संन्यास<ref name="olivellesamnyasa">[[Patrick Olivelle]] (1992), The Samnyasa Upanisads, Oxford University Press, {{ISBN|978-0195070453}}, pages x-xi, 5</ref>!!शाक्त<ref>AM Sastri, The Śākta Upaniṣads, with the commentary of Śrī Upaniṣad-Brahma-Yogin, Adyar Library, {{oclc|7475481}}</ref>!!वैष्णव<ref>AM Sastri, The Vaishnava-upanishads: with the commentary of Sri Upanishad-brahma-yogin, Adyar Library, {{oclc|83901261}}</ref>!!शैव<ref>AM Sastri, The Śaiva-Upanishads with the commentary of Sri Upanishad-Brahma-Yogin, Adyar Library, {{oclc|863321204}}</ref>!!योग<ref name="ayyangaryoga">[https://archive.org/stream/TheYogaUpanishads/TheYogaUpanisadsSanskritEngish1938#page/n3/mode/2up The Yoga Upanishads] TR Srinivasa Ayyangar (Translator), SS Sastri (Editor), Adyar Library</ref>
|-
![[ऋग्वेद]]
|१०|| style="background: #FFDD00; color: black" |ऐतरेय, कौषीतकि||आत्मबोध, मुद्गल||निर्वाण
|त्रिपूरा, सौभाग्य लक्ष्मी, बहवृच||-||अक्षमालिका
|नादबिंदु
|-
![[सामवेद]]
|१६ || style="background: #FFDD00; color: black" |छांदोग्य, केन||वज्रसुचिक, महा, सावित्री||आरूणीक, मैत्रेय, बृहत-संन्यास, कुंडिक (लघु-संन्यास)||-||वासुदेव, अव्यक्त||रुद्राक्षजबाल, जाबाली||योग चुडामणी, दर्शन
|-
![[यजुर्वेद|कृष्ण यजुर्वेद]]
|३२ || style="background: #FFDD00; color: black" |तैत्तिरीय, कठ, श्वेताश्वर, मैत्रायणी{{refn|group=note|Parmeshwaranand classifies Maitrayani with Samaveda, most scholars with Krishna Yajurveda{{sfn|Parmeshwaranand|2000|pp=404–406}}<ref>Paul Deussen, Sixty Upanishads of the Veda, Volume 1, Motilal Banarsidass, {{ISBN|978-8120814684}}, pages 217-219</ref>}}||सर्वसार, सुखरहस्य, स्कंध, गर्भ, शारीरक, एकाक्षर, अक्षि||ब्रह्म, (लधु, बृहद) अवधूत, कठश्रुति||सरस्वतीरहस्य
|नारायण, कलि-संतरण||कैवल्य, कालाग्नि रुद्र, दक्षिणामूर्ति, रुद्रहृदय, पंचब्रह्म||अमृतबिंदु, तेजोबिंदु, अमृतनाद, क्षुरीक, ध्यानबिंदु, ब्रह्मविद्या, योगतत्व, योगशिखा, योगकुंडलिनी, वराह
|-
![[यजुर्वेद|शुकल यजुर्वेद]]
|१९ || style="background: #FFDD00; color: black" |बृहदारण्यक, इशावास्य||सुबल, मांत्रिक, नीरालंब, पिंगळ, अध्यात्म, मुक्तिका||जाबला, परमहंस, भिक्षुक, तुरियातीता-अवधुत, याज्ञवल्क्य, सत्य्यानिया||-||तार-सार
|<nowiki>-</nowiki>||अद्वयतारक, हंस, त्रिशिखी, मंडल
|-
![[अथर्ववेद]]
|३१ || style="background: #FFDD00; color: black" |मुंडक, मांडुक्य, प्रश्न||आत्मा, सूर्य, प्रांगनिहोत्रा<ref>Prāṇāgnihotra is missing in some anthologies, included by Paul Deussen (2010 Reprint), Sixty Upanishads of the Veda, Volume 2, Motilal Banarsidass, {{ISBN|978-8120814691}}, page 567</ref>||अशर्म, नारद-परिव्राजक, परमहंस परिव्राजक, परब्रह्म||सीता, देवी, त्रिपुरातापनि, भावना||नृसिंहतापनी, महानारायण (त्रिपद्विभूति), रामरहस्य, रामतापणी, गोपालतपणि, कृष्ण, हयग्रीव, दत्तात्रेय, गरुड||अथर्वशिर,<ref>Atharvasiras is missing in some anthologies, included by Paul Deussen (2010 Reprint), Sixty Upanishads of the Veda, Volume 2, Motilal Banarsidass, {{ISBN|978-8120814691}}, page 568</ref> अथर्वशिख, बृहज्जबाल, शरभ, भस्मजाबाल, गणपति||शांडिल्य, पाशुपत, महावाक्य
|-
|style="background: #FFCC88; color: black"|कुल उपनिषद|| style="background: #FFCC88; color: black" |१०८|| style="background: #FFCC88; color: black" |१३{{refn|group=note|name=mukhya101213}}|| style="background: #FFCC88; color: black" | २१ || style="background: #FFCC88; color: black" |१९|| style="background: #FFCC88; color: black" |८ || style="background: #FFCC88; color: black" |१४|| style="background: #FFCC88; color: black" |१३ || style="background: #FFCC88; color: black" |२०
|}
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=== मुख्य उपनिषद एवं गौण उपनिषद===
{{मुख्य|मुख्य उपनिषद्}}
विषय की गम्भीरता तथा विवेचन की विशदता के कारण १३ उपनिषद् विशेष मान्य तथा प्राचीन माने जाते हैं।
जगद्गुरु [[आदि शंकराचार्य]] ने १० पर अपना भाष्य दिया है- <br />
(१) ईश, (२) ऐतरेय (३) कठ (४) केन (५) छान्दोग्य (६) प्रश्न (७) तैत्तिरीय (८) बृहदारण्यक (९) मांडूक्य और (१०) मुण्डक।
उन्होने निम्न तीन को प्रमाण कोटि में रखा है- <br />
(१) श्वेताश्वतर (२) कौषीतकि तथा (३) मैत्रायणी।
अन्य उपनिषद्
=== प्रतिपाद्य विषय के आधार पर===
Line 90 ⟶ 130:
;२.पद्यात्मक उपनिषद्
१.ईश, २.कठ, ३. श्वेताश्वतर तथा नारायण <br />
इनका पद्य वैदिक मंत्रों के अनुरूप सरल, प्राचीन तथा सुबोध है।
;३.अवान्तर गद्योपनिषद्
Line 112 ⟶ 152:
== उपनिषदों की भौगोलिक स्थिति एवं काल ==
उपनिषदों की भौगोलिक स्थिति [[मध्यदेश]] के कुरुपांचाल से लेकर [[विदेह]] (मिथिला) तक फैली हुई है।
उपनिषदों के काल के विषय
उपनिषदों के रचनाकाल के सम्बन्ध में विद्वानों का एक मत नहीं है। कुछ उपनिषदों को वेदों की मूल संहिताओं का अंश माना गया है। ये सर्वाधिक प्राचीन हैं। कुछ उपनिषद ‘ब्राह्मण’ और ‘आरण्यक’ ग्रन्थों के अंश माने गये हैं। इनका रचनाकाल संहिताओं के बाद का है। उपनिषदों के काल के विषय
# पुरातत्व एवं भौगोलिक परिस्थितियां
# पौराणिक अथवा वैदिक ॠषियों के नाम
Line 151 ⟶ 191:
== इन्हें भी देखिये ==
* [[उपनिषद् सूची]]
* [[वेदान्त दर्शन|वेदान्त]]
* [[वेदान्तसूत्र]] या [[ब्रह्मसूत्र]]
* [[वेदान्तसार]]
== बाहरी कड़ियाँ ==
* [https://www.shdvef.com/religious-scriptures/upnishad/ ७० से अधिक उपनिषद] (हिन्दी अर्थ सहित)
* [http://navbharattimes.indiatimes.com/articleshow/2337876.cms उपनिषदों ने आत्मनिरीक्षण का मार्ग बताया]
* [https://upanishads.org.in/glossary# उपनिषद् शब्दावली]
=== मूल ग्रन्थ ===
Line 177 ⟶ 215:
* [https://web.archive.org/web/20101229070903/http://www.celextel.org/108upanishads/ Complete translation on-line into English of all 108 Upaniṣad-s] [not only the 11 (or so) major ones to which the foregoing links are meagerly restricted]-- lacking, however, diacritical marks
* [https://web.archive.org/web/20130418224450/http://hinduquotes.blogspot.com/ Quotes]
==सन्दर्भ==
{{टिप्पणीसूची}}
{{उपनिषद}}
{{भारतीय दर्शन}}
{{हिन्दू धर्म}}
[[श्रेणी:वेद]]
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