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== जीवन-परिचय ==
== जीवन-परिचय ==


'''मिखाइल अलेक्सान्द्रोविच शोलोख़ोव''' का जन्म एक निम्न मध्यवर्गीय रूसी किसान परिवार में 24 मई 1905 ई० को हुआ था। उनका परिवार दोन कज्जाक सेना के भूतपूर्व क्षेत्र वेशेन्स्काया स्तानित्सा (बड़ा कज्जाक गाँव) के क्रुझिलिन खुतोर (फार्म-प्रतिष्ठान) में रहता था। उनके पिता ने खेती और पशुओं के व्यापार से लेकर कपड़ा बुनने तक कई काम किये। उनकी अशिक्षित माँ एक उक्रेनी किसान परिवार की थीं और एक कज्जाक की विधवा थीं। बाद में अपने बेटे से चिट्ठी-पत्री के उद्देश्य से उन्होंने लिखना पढ़ना सीखा था।<ref>शशांक दुबे, '''प्रगतिशील वसुधा'''; सं०-कमला प्रसाद, स्वयं प्रकाश एवं राजेन्द्र शर्मा; अंक-70 (जुलाई-सितम्बर-2006), पृ०-34</ref>
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मिखाइल शोलोख़ोव की शिक्षा कारगिन, बोगुचार और वेशेन्स्काया के कई स्कूलों में हुई। उन्होंने एक श्रमिक, सामान्य क्लर्क और अध्यापक के रूप में कार्य किया था। धूप से तपते विस्तृत मैदानों में घूम-घूम कर मिखाइल ने बालपन से ही जीवन की नग्न वास्तविकताओं को देखा था। उनका शरीर इस बात का साक्षी था-- जो धूप में लगातार तपते रहने के कारण ताम्र वर्ण में बदल गया था। अपनी जवानी के दिनों में उन्होंने खेतों में कड़ी मेहनत की थी, हल चलाया था, बीज बोया था और फसलें काटी थीं। दोन नदी में मछुआरों की छोटी डोंगी में उस प्रदेश का चप्पा-चप्पा छान मारा था। कठिन परिस्थितियों में भी उन्होंने हँसना सीखा था।<ref name="अ">नोबेल पुरस्कार विजेता साहित्यकार, राजबहादुर सिंह, राजपाल एंड सन्ज़, नयी दिल्ली, संस्करण-2007, पृ०-208.</ref> 1918 में जब ऊपरी दोन क्षेत्र भी [[गृहयुद्ध]] की चपेट में आ गया तो शोलोख़ोव की पढ़ाई का सिलसिला असमय ही समाप्त हो गया। निर्णय की ऐतिहासिक घड़ी में शोलोख़ोव ने अपना रास्ता चुनने में कोई हिचक नहीं दिखायी। उस समय ऊपरी दोन क्षेत्र में सोवियत विरोधी श्वेत गार्डों की बची-खुची टुकड़ियों की विध्वंसक कार्रवाइयों और कज्जाकों के विद्रोहों के खिलाफ [[बोल्शेविक दल|बोल्शेविक]] जूझ रहे थे। शोलोख़ोव ने बोल्शेविकों का पक्ष लिया और [[लाल सेना]] में शामिल होकर प्रतिक्रियावादियों से लोहा लिया। इन अनुभवों का इस्तेमाल आगे चलकर उन्होंने अपनी कृतियों में किया।<ref>'धीरे बहे दोन रे...', मिखाइल शोलोख़ोव, (संपूर्ण उपन्यास का हिंदी अनुवाद), अनुवादक- गोपीकृष्ण 'गोपेश', संपादक- कात्यायनी एवं सत्यम, राजकमल प्रकाशन प्रा० लि०, नयी दिल्ली, संस्करण-2003, पृ०-IX-X.</ref> 1922 तक वे दोन के क्षेत्र में रहे। इन दिनों उन्हें विभिन्न परिस्थितियों में रहना पड़ा था। 1923 में गृहयुद्ध की समाप्ति के बाद वे [[माॅस्को]] आये और उन्होंने कई काम किये जिनमें बोझा ढोने और ईंटें जोड़ने का काम भी था।<ref>रूसी साहित्य का इतिहास; केसरी नारायण शुक्ल; हिंदी समिति, सूचना विभाग, लखनऊ, उत्तर प्रदेश; संस्करण-1963, पृष्ठ-313.</ref>
मिखाइल शोलोख़ोव की शिक्षा कारगिन, बोगुचार और वेशेन्स्काया के कई स्कूलों में हुई। उन्होंने एक श्रमिक, सामान्य क्लर्क और अध्यापक के रूप में कार्य किया था। धूप से तपते विस्तृत मैदानों में घूम-घूम कर मिखाइल ने बालपन से ही जीवन की नग्न वास्तविकताओं को देखा था। उनका शरीर इस बात का साक्षी था-- जो धूप में लगातार तपते रहने के कारण ताम्र वर्ण में बदल गया था। अपनी जवानी के दिनों में उन्होंने खेतों में कड़ी मेहनत की थी, हल चलाया था, बीज बोया था और फसलें काटी थीं। दोन नदी में मछुआरों की छोटी डोंगी में उस प्रदेश का चप्पा-चप्पा छान मारा था। कठिन परिस्थितियों में भी उन्होंने हँसना सीखा था।<ref name="अ">नोबेल पुरस्कार विजेता साहित्यकार, राजबहादुर सिंह, राजपाल एंड सन्ज़, नयी दिल्ली, संस्करण-2007, पृ०-208.</ref> 1918 में जब ऊपरी दोन क्षेत्र भी [[गृहयुद्ध]] की चपेट में आ गया तो शोलोख़ोव की पढ़ाई का सिलसिला असमय ही समाप्त हो गया। निर्णय की ऐतिहासिक घड़ी में शोलोख़ोव ने अपना रास्ता चुनने में कोई हिचक नहीं दिखायी। उस समय ऊपरी दोन क्षेत्र में सोवियत विरोधी श्वेत गार्डों की बची-खुची टुकड़ियों की विध्वंसक कार्रवाइयों और कज्जाकों के विद्रोहों के खिलाफ [[बोल्शेविक दल|बोल्शेविक]] जूझ रहे थे। शोलोख़ोव ने बोल्शेविकों का पक्ष लिया और [[लाल सेना]] में शामिल होकर प्रतिक्रियावादियों से लोहा लिया। इन अनुभवों का इस्तेमाल आगे चलकर उन्होंने अपनी कृतियों में किया।<ref>'धीरे बहे दोन रे...', मिखाइल शोलोख़ोव, (संपूर्ण उपन्यास का हिंदी अनुवाद), अनुवादक- गोपीकृष्ण 'गोपेश', संपादक- कात्यायनी एवं सत्यम, राजकमल प्रकाशन प्रा० लि०, नयी दिल्ली, संस्करण-2003, पृ०-IX-X.</ref> 1922 तक वे दोन के क्षेत्र में रहे। इन दिनों उन्हें विभिन्न परिस्थितियों में रहना पड़ा था। 1923 में गृहयुद्ध की समाप्ति के बाद वे [[माॅस्को]] आये और उन्होंने कई काम किये जिनमें बोझा ढोने और ईंटें जोड़ने का काम भी था।<ref>रूसी साहित्य का इतिहास; केसरी नारायण शुक्ल; हिंदी समिति, सूचना विभाग, लखनऊ, उत्तर प्रदेश; संस्करण-1963, पृष्ठ-313.</ref>


शोलोख़ोव 1932 से [[कम्युनिस्ट पार्टी]] के सदस्य रहे। 1935 में उन्हें सोवियत संसद का सदस्य चुन लिया गया, लेकिन गलत चीजों का विरोध करने के प्रति उनके तेवर कतई नर्म नहीं हुए।<ref>'''प्रगतिशील वसुधा''', अंक-70, पूर्ववत्, पृ०-35.</ref> द्वितीय महायुद्ध में वे सोवियत सेना की ओर से फासिस्टों के विरुद्ध युद्ध में भी शामिल होकर लड़े और युद्ध समाप्त होने पर शांति आंदोलन के बहुत बड़े समर्थक बने।<ref>रूसी साहित्य का इतिहास, पूर्ववत्, पृष्ठ-314.</ref>
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== रचनात्मक परिचय ==
== रचनात्मक परिचय ==
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== सम्मान ==
== सम्मान ==
* स्टालिन पुरस्कार - 1941
* लेनिन पुरस्कार - 1960
* [[नोबेल पुरस्कार]] - 1965

इनके अतिरिक्त भी अनेक देशी-विदेशी सम्मानों से सम्मानित।

==इन्हें भी देखें==
* [[लेव तोल्स्तोय]]
* [[मदनलाल ‘मधु’]]


== सन्दर्भ ==
== सन्दर्भ ==
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[[श्रेणी:नोबेल पुरस्कार विजेता]]
[[श्रेणी:नोबेल पुरस्कार विजेता]]

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मिखाइल शोलोख़ोव
जन्म 24 मई 1905
वेशेन्स्काया, रूसी साम्राज्य
मौत 21 फ़रवरी 1984
वेशेन्स्काया, सोवियत संघ
राष्ट्रीयता सोवियत
पेशा उपन्यासकार
पुरस्कार साहित्य में नोबेल पुरस्कार
1965
हस्ताक्षर

मिखाइल शोलोख़ोव (1905-1984) रूसी साहित्य के सुप्रसिद्ध कथाकार एवं साहित्य के क्षेत्र में 1965 के नोबेल पुरस्कार विजेता हैं।

जीवन-परिचय

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मिखाइल अलेक्सान्द्रोविच शोलोख़ोव का जन्म एक निम्न मध्यवर्गीय रूसी किसान परिवार में 24 मई 1905 ई० को हुआ था। उनका परिवार दोन कज्जाक सेना के भूतपूर्व क्षेत्र वेशेन्स्काया स्तानित्सा (बड़ा कज्जाक गाँव) के क्रुझिलिन खुतोर (फार्म-प्रतिष्ठान) में रहता था। उनके पिता ने खेती और पशुओं के व्यापार से लेकर कपड़ा बुनने तक कई काम किये। उनकी अशिक्षित माँ एक उक्रेनी किसान परिवार की थीं और एक कज्जाक की विधवा थीं। बाद में अपने बेटे से चिट्ठी-पत्री के उद्देश्य से उन्होंने लिखना पढ़ना सीखा था।[1]

मिखाइल शोलोख़ोव की शिक्षा कारगिन, बोगुचार और वेशेन्स्काया के कई स्कूलों में हुई। उन्होंने एक श्रमिक, सामान्य क्लर्क और अध्यापक के रूप में कार्य किया था। धूप से तपते विस्तृत मैदानों में घूम-घूम कर मिखाइल ने बालपन से ही जीवन की नग्न वास्तविकताओं को देखा था। उनका शरीर इस बात का साक्षी था-- जो धूप में लगातार तपते रहने के कारण ताम्र वर्ण में बदल गया था। अपनी जवानी के दिनों में उन्होंने खेतों में कड़ी मेहनत की थी, हल चलाया था, बीज बोया था और फसलें काटी थीं। दोन नदी में मछुआरों की छोटी डोंगी में उस प्रदेश का चप्पा-चप्पा छान मारा था। कठिन परिस्थितियों में भी उन्होंने हँसना सीखा था।[2] 1918 में जब ऊपरी दोन क्षेत्र भी गृहयुद्ध की चपेट में आ गया तो शोलोख़ोव की पढ़ाई का सिलसिला असमय ही समाप्त हो गया। निर्णय की ऐतिहासिक घड़ी में शोलोख़ोव ने अपना रास्ता चुनने में कोई हिचक नहीं दिखायी। उस समय ऊपरी दोन क्षेत्र में सोवियत विरोधी श्वेत गार्डों की बची-खुची टुकड़ियों की विध्वंसक कार्रवाइयों और कज्जाकों के विद्रोहों के खिलाफ बोल्शेविक जूझ रहे थे। शोलोख़ोव ने बोल्शेविकों का पक्ष लिया और लाल सेना में शामिल होकर प्रतिक्रियावादियों से लोहा लिया। इन अनुभवों का इस्तेमाल आगे चलकर उन्होंने अपनी कृतियों में किया।[3] 1922 तक वे दोन के क्षेत्र में रहे। इन दिनों उन्हें विभिन्न परिस्थितियों में रहना पड़ा था। 1923 में गृहयुद्ध की समाप्ति के बाद वे माॅस्को आये और उन्होंने कई काम किये जिनमें बोझा ढोने और ईंटें जोड़ने का काम भी था।[4]

शोलोख़ोव 1932 से कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य रहे। 1935 में उन्हें सोवियत संसद का सदस्य चुन लिया गया, लेकिन गलत चीजों का विरोध करने के प्रति उनके तेवर कतई नर्म नहीं हुए।[5] द्वितीय विश्वयुद्ध में वे सोवियत सेना की ओर से फासिस्टों के विरुद्ध युद्ध में भी शामिल होकर लड़े और युद्ध समाप्त होने पर शांति आंदोलन के बहुत बड़े समर्थक बने।[6]

रचनात्मक परिचय

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बचपन से ही साहित्य की ओर उनका झुकाव था। आरंभ में उन्होंने नाटक भी लिखे थे, जिनका मंचन युवा क्लबों के सदस्यों ने किया था।[2] 1923 ई० से ही शोलोख़ोव की कृतियों का प्रकाशन आरंभ हो गया था। 1925 में उनकी पहली पुस्तक दोन की कहानियाँ प्रकाशित हुई। शोलोख़ोव का सर्जनात्मक विकास तेजी से हुआ। कम उम्र के बावजूद उनका जीवनानुभव समृद्ध हो चुका था। 'दोन की कहानियाँ' के 3 वर्ष बाद ही (1928 में) उनके जगत्-प्रसिद्ध उपन्यास धीरे बहे दोन रे... (एंड क्विट फ्लोज द डॉन) का प्रथम भाग प्रकाशित हुआ, जिसने उन्हें सोवियत लेखकों की प्रथम श्रेणी में प्रतिष्ठित कर दिया। 1929 में इस उपन्यास का दूसरा भाग, 1933 में तीसरा और 1940 में चौथा भाग प्रकाशित हुआ। 1941 में कुंवारी भूमि का जागरण उपन्यास का पहला भाग प्रकाशित हुआ।

इन कृतियों ने शोलोख़ोव को सिद्धि एवं प्रसिद्धि दोनों के शिखर पर पहुँचा दिया। शोलोख़ोव में अपने पूर्व के शीर्षस्थ कथाकारों के वैशिष्ट्यों का उत्तम रासायनिक सम्मिश्ररण मिलता है; फिर भी वे उनसे और अपने समकालीनों से सर्वथा पृथक् नज़र आते हैं। वस्तुतः प्रतीति को भेदकर सार तक पहुँचने वाली वैज्ञानिक यथार्थवादी दृष्टि के साथ ही क्रांतिकारी स्वच्छंदतावाद का उद्दाम आवेग भी शोलोख़ोव को मैक्सिम गोर्की से विरासत में मिला था। वैविध्यपूर्ण यथार्थवादी दृश्य- सर्जना और चरित्र-निरूपण में वे लेव तोलस्तोय के उत्तराधिकारी प्रतीत होते हैं। मानव-नियति की त्रासदियों और जीवन के अन्तर्भूत आशावाद की प्रस्तुति में भी वे तोलस्तोय की याद दिलाते हैं। और "आत्मा की जासूसी" के मामले में वे गोगोल के शिष्य अधिक लगते हैं।[7]

इन कृतियों की लोकप्रियता का अंदाजा इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि 1960 के दशक के अंदर ही 'धीरे बहे दोन रे...' (एंड क्विट फ्लोज द डॉन) के 149 और 'कुंवारी भूमि का जागरण' (वर्जिन साॅयल अपटर्न्ड) के 120 संस्करण प्रकाशित हुए।[8] प्रकाशन के कुछ समय पश्चात् ही सोवियत संघ की 50 भाषाओं में अनूदित होकर ये उपन्यास जन-जन तक पहुँचे तथा अनेक विदेशी भाषाओं में भी इनके अनुवाद हुए। 1980 तक सोवियत संघ की कुल 84 भाषाओं में शोलोख़ोव की पुस्तकों की 7 करोड़ 90 लाख प्रतियाँ छप चुकी थीं।[9]

जनता ने उनके साहित्य को हृदय से अपनाया क्योंकि उनका साहित्य वस्तुतः देश की जनता को ही अंतःहृदय से समर्पित था। नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने के अवसर पर दिये गये अपने व्याख्यान में भी उन्होंने कहा था कि मैं लेखक का अपना कर्तव्य इसी बात को मानता आया हूं और अभी भी मानता हूं कि अब तक मैंने जो कुछ लिखा है और आगे जो कुछ लिखूंगा, वह इस श्रमिक जनता, निर्माणरत जनता और वीर जनता को मेरा प्रणाम हो, उस जनता को जिसने कभी किसी पर आक्रमण नहीं किया, परंतु जो अपने द्वारा निर्मित जीवन की, अपनी स्वतंत्रता और सम्मान की, अपनी इच्छानुसार अपने भविष्य का निर्माण करने के अपने अधिकार की सगर्व रक्षा करने में सदा समर्थ रही है।[10]

प्रकाशित पुस्तकें

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  • कथा साहित्य:
  1. दोन की कहानियाँ (टेल्स फ्राॅम द डाॅन) -1923
  2. 'धीरे बहे दोन रे...' (मूलतः रूसी में तिचि दोन, अंग्रेजी अनुवाद-'एंड क्विट फ्लोज द डॉन') - 1928 से 1940
  3. कुँवारी भूमि का जागरण, प्रथम भाग ('आने वाले कल के बीज') (वर्जिन साॅयल अपटर्न्ड) - 1932
  4. कुँवारी भूमि का जागरण, द्वितीय भाग ('दोन पर फसल कटाई') - 1960
  5. इंसान का नसीबा (द फेट ऑफ ए मैन) {लंबी कहानी/लघु उपन्यास} - 1957
  6. वे देश के लिए लड़े (दे फाइट फॉर देयर कंट्री) - 1959
  • दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान लिखे गये आलेखों के संकलन:
  1. दोन किनारे
  2. दक्षिण में
  3. कज्जाक

इनके अतिरिक्त भी अनेक देशी-विदेशी सम्मानों से सम्मानित।

इन्हें भी देखें

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सन्दर्भ

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  1. शशांक दुबे, प्रगतिशील वसुधा; सं०-कमला प्रसाद, स्वयं प्रकाश एवं राजेन्द्र शर्मा; अंक-70 (जुलाई-सितम्बर-2006), पृ०-34
  2. नोबेल पुरस्कार विजेता साहित्यकार, राजबहादुर सिंह, राजपाल एंड सन्ज़, नयी दिल्ली, संस्करण-2007, पृ०-208.
  3. 'धीरे बहे दोन रे...', मिखाइल शोलोख़ोव, (संपूर्ण उपन्यास का हिंदी अनुवाद), अनुवादक- गोपीकृष्ण 'गोपेश', संपादक- कात्यायनी एवं सत्यम, राजकमल प्रकाशन प्रा० लि०, नयी दिल्ली, संस्करण-2003, पृ०-IX-X.
  4. रूसी साहित्य का इतिहास; केसरी नारायण शुक्ल; हिंदी समिति, सूचना विभाग, लखनऊ, उत्तर प्रदेश; संस्करण-1963, पृष्ठ-313.
  5. प्रगतिशील वसुधा, अंक-70, पूर्ववत्, पृ०-35.
  6. रूसी साहित्य का इतिहास, पूर्ववत्, पृष्ठ-314.
  7. 'धीरे बहे दोन रे...', मिखाइल शोलोख़ोव, (संपूर्ण उपन्यास का हिंदी अनुवाद), पूर्ववत्, पृ०-IX.
  8. रूसी साहित्य का इतिहास, पूर्ववत्, पृष्ठ-313-314.
  9. 'धीरे बहे दोन रे...', मिखाइल शोलोख़ोव, (संपूर्ण उपन्यास का हिंदी अनुवाद), पूर्ववत्, पृ०-XIV.
  10. मिख़ाईल शोलोख़ोव : चुनी हुई रचनाएँ (बीसवीं शताब्दी का साहित्य-३), साहित्य अकादेमी, नयी दिल्ली, पृष्ठ-567-568.