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सम्पत्ति

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सम्पत्ति शब्द की व्युत्पत्ति

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भाषाविज्ञान के अनुसार सम्पत्ति शब्द की व्युत्पत्ति लैटिन क्रियाविशेषण "प्राप्टर" (propter) से हुई है। इसका विकास "प्रोप्राइर्टस" नामक शब्द से हुआ। प्रोप्राइटैस शब्द रोमन विधिज्ञों द्वारा बौद्धिक स्तर पर प्रयोग में लाया जाने लगा तथा फ्रांस की बोलचाल की भाषा में इसका व्यवहार होने लगा। धीरे धीरे सम्पत्ति शब्द का उपयोग भूमि, धन तथा अन्य मूल्यवान वस्तुओं के लिए होने लगा।

"सम्पत्ति" के अभिप्राय का विकास

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"सम्पत्ति" शब्द का अर्थ तब निश्चित है जब इस शब्द का प्रयोग एक परिवार और उसके सदस्यों से सम्बन्धित वस्तुओं का सम्बन्ध व्यक्त करने के लिए किया जाने लगा। बाद में सामाजिक परिस्थितियों द्वारा व्यक्तियों की वस्तुओं के अभिग्रहण और संरक्षण की प्रवृत्ति को मान्यता प्राप्त हुई तथा उसके मूल का औचित्य और आवश्यकता देखते हुए सम्पत्ति का समर्थन किया जाने लगा। वह सम्मान की वस्तु बन गई तथा उसका विकास सामाजिक विशिष्टताओंवाली संस्था के रूप में होने लगा।

आदिम समाज में धर्म के अधिकारी विद्वानों ने कानून को जन्म दिया तथा उस समाज में सम्पत्ति एवं परिवार दोनों अवियोज्य शब्द थे क्योंकि दोनों का मूल धर्म ही था तथा दोनों को धर्म से ही मान्यता प्राप्त थी। इस प्रकार सम्पत्ति, परिवार तथा कानून, आदिम समाज में सजातीय अथवा सम्बद्ध शब्द थे।

संस्कृत शब्द "गृह" अर्थात् घर की व्युत्पत्ति, "ग्रह" शब्द हुई है जिसके अर्थ है, ले लेना, स्वीकार करना, छीन लेना अथवा विजय प्राप्त करना। यह स्मरण रखना चाहिए कि बलपूर्वक अथवा युद्ध में जीतकर अधिग्रहण अत्यंत प्राचीन विधि है। मनु के अनुसार, गृह की स्थापना गृहस्थी या परिवार की नींव है। "घर" तथा "परिवार" दोनों के लिए प्रयुक्त होनेवाले लैटिन शब्द "डोमस", "डोमिनियम" (Dominium) का मूल है, जिसका अर्थ रोमन न्यायशास्त्र में संपत्ति का आशय समझाने के लिये अत्यधिक महत्वपूर्ण है।

न्यायसंहिता (Justinian code) में "मैंनसिपियम" (Mancipium), "डोमिनियम" तथा "प्रोपाइर्टस" का प्रयोग संपत्ति अथवा "स्वामित्व" के लिए समान रूप से किया जाता है। मैनसिपियम का अर्थ है अभिग्रहण, अधिकार में करना, विशेषकर भूमि आदि। "मैनसिपियम" शब्द लगभग संस्कृत के "ग्रह" शब्द के ही समान है। रोमन में "डोमिनियम" अथवा "प्रोपाइर्टस" का अर्थ उन सब अधिकारों का समूह है जिससे स्वामित्व का बोध होता है।

समय के साथ साथ "स्वत्व" का विकास हुआ और धीरे धीरे इसका आशय किसी वस्तु का स्वतंत्र उपयोग और उसे भेजने या दे डालने का अधिकार समझा जाने लगा।

आदिम समाजों में सम्पत्ति के साथ धार्मिक भावना भी जुड़ी रहती थी। जहाँ भूमि और उसके उत्पादन जीविका के प्रमुख साधन थे तथा भूमि अभिग्रहण की विधि अतिक्रमण और विजय द्वारा प्राप्त करना था, भूमि तथा खेती करने का अधिकार एक प्रकार का धन समझा जाता था और इस प्रकार यह एक जाति अथवा परिवार से सम्बन्धित सम्पत्ति का प्रमुख अंग था। परिवारिक सम्पत्ति उन्हीं के लिए दाय योग्य थी जो अपने पूर्वजों के लिए धार्मिक अनुष्ठान किया करते थे। पूर्वजों के लिए धार्मिक अनुष्ठान करना नर वंशजों का ही प्रथम कर्तव्य समझा जाता था। इसलिए खेती करने, भूमि का भोग करने तथा इसकी क्रय विक्रय करने का अधिकार जन्म से प्राप्त हो जाता था।

पुत्र का जन्मत: अधिकार मिताक्षरा ने स्वीकार किया है। विजनेश्वर के अनुसार जन्म ही सम्पत्ति का कारण है। हिन्दु समाज में कानून की यह निश्चित स्थिति है कि पैतृक या पूर्वजों की संपत्ति का स्वत्व जन्म से प्राप्त होता है।

धीरे धीरे सम्पत्ति का धार्मिक स्वरूप लुप्त होता गया। मिताक्षरा के अनुसार सम्पत्ति इहलौकि वस्तु है क्योंकि इसका उपयोग सांसारिक लेन देन के लिए होता है।

मनुस्मृति के टीकाकारों के मतानुसार आर्यों में सम्पत्ति का आशय पूरे परिवार से सम्बद्ध होता था जिसमें पुत्र, पुत्री, पत्नी तथा दास भी सम्मिलित थे। समाज के विकास के साथ पुत्र, पुत्री तथा पत्नी को सम्पत्ति की वस्तु या सम्पत्ति का अंग न समझकर उन्हें सम्पत्ति से पृथक् अस्तित्व की मान्यता दी गई।

सम्पत्ति का प्रत्यय (concept of property)

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भारतीय कानून में सपात्त का विधिक प्रत्यय वैसा ही होता है जैसा अंग्रेजी न्यायशास्त्र में। अंग्रेजी कानून बहुत कुछ रोमन कानून से प्रभावित है। "सम्पत्ति" शब्द के कई अर्थ हो सकते हैं यथा स्वामित्व या स्वत्व, अर्थात् स्वामी को प्राप्त सम्पूर्ण अधिकार। कभी कभी इसका अर्थ रोमन "रेस" होता है जिसे अन्तर्गत स्वामित्व के अधिकार का प्रयोग होता है जिसके अन्तर्गत स्वामित्व के अधिकार का प्रयोग होता है अर्थात् स्वयं वह वस्तु जो उक्त अधिकार का विषय या पात्र है। "रेस" अथवा "वस्तु" का मानव से सम्बन्ध बतानेवाला अर्थ सम्पत्ति के स्वरूप के विकास में सहायक हुआ है। इस प्रकार "रेस" अथवा "वस्तु" पर अधिकार का सम्बोध और स्वयं "रेस" या "वस्तु" का सम्बोध सपत्ति सम्बन्धी प्रत्यय से जटिल तथा गहरे रूप से सम्बद्ध है अर्थात् दोनों एक दूसरे के पूरक और सहायक है।

रोमन में "रेस" का अर्थ अत्यन्त जटिल है। यह अंग्रेजी की तरह अधिकार की ठोस वस्तु है। किंतु "रेस" का ठीक ठीक अर्थ "वस्तु" के बिलकुल समान नहीं है, उससे कुछ अधिक है। यद्यपि "रेस" का मूल अर्थ भौतिक वस्तु है, परन्तु धीरे धीरे इसका प्रयोग ऐसी परिसम्पत्ति (assets) को व्यक्त करने के लिए भी होने लगा जो भौतिक तथा स्थूल ही न होकर अमूर्त भी हो सकती थी जैसे बिजली। "रेस" का प्रयोग विशिष्टाधिकार के लिए भी होता है और ऐसे अधिकारों के लिए भी जो, उदाहरणार्थ, प्रसिद्धि या ख्याति से उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार इन दो अर्थो के लिए रेस का लगातार प्रयोग होने के कारण "रेस" के दो अर्थ हो गए : "रेस पार्थिव" अर्थात् भौतिक वस्तुएँ जो मनुष्य के अधिकारों के अन्तर्गत आ सकती है तथा "रेस अपार्थिव" अर्थात् वे अधिकार स्वयं। इस प्रकार अन्तिम विश्लेषण के फलस्वरूप "वस्तु" का आशय "रेस पार्थिव" से ही लिया जाएगा।

रोमन भाषा में "रेस" सम्पत्ति की वस्तु तथा अधिकार दोनों के लिए प्रयुक्त होता है, परन्तु "बोना" (Bona) शब्द, जो सामान या धन के लिए प्रयुक्त होता है, संस्कृत के "धन" शब्द के समकक्ष है। अरबी जूरियों (Arabian Jurists) के अनुसार "माल" शब्द सम्पत्ति तथा किसी भी ऐसी वस्तु के लिए प्रयुक्त हो सकता है जिसका अरबी कानून (बशेरियात) में मूल्य या अर्थ (वैल्यू) हो अथवा जो किसी व्यक्ति के अधिकार में रह सकती हो। "धन" शब्द भी सम्पत्ति के लिए बहुधा प्रयुक्त होता है।

सम्पत्ति के अर्थ में प्रयुक्त होनेवाली वस्तु में स्थायित्व का तथा भौतिक एकत्व का गुण होना आवश्यक है। इकाइयों के एक संग्रह को जिसकी इकाइयाँ स्वयं पृथक वस्तु हों और ऐसी एकल इकाइयों के सम्मिलन से बनी वस्तु को भी वस्तु कह सकते हैं; जैसे एक ईंट अथवा ईंटों से निर्मित एक मकान या एक भेंड़ अथवा कई भेड़ों से बना एक झुडं। कानून में वस्तु का प्रयोग कुछ अधिकारों एवं कर्तव्यों को व्यक्त करने के लिए भी किया जाता है। भौतिक गुणों के आधार पर "वस्तु" दो प्रकार की हो सकती है - चल अथवा अचल। लेकिन अग्रेजी कानून के तकनीकी नियमों के अनुसार वस्तु, वास्तविक तथा व्यक्तिगत होती है। रोमन कानून के अनुसार "रेस" को इसी प्रकार "मैनसिपेबुल" (mancipable) तथा अनमैनसिपूबुल में विभक्त किया गया है। इस प्रकार सम्पत्ति एक और "रेस" या "वस्तु" और दूसरी ओर रेस अथवा वस्तु से सम्बन्धित मनुष्य के अधिकारों से सम्बद्ध है। इसलिए सम्पत्ति के लिए एक ऐसा व्यक्ति आवश्यक है जो किसी वस्तु पर अपना अधिकार रख सके।

अन्तिम विश्लेषण के अनुसार सम्पत्ति, एक व्यक्ति और एक वस्तु या अधिकार, जिसे वह केवल अपना मानता हो, के मध्य स्थापित सम्बन्ध को व्यक्त करती है। अपने आधुनिक प्रयोगों में सम्पत्ति उन सभी वस्तुओं या सम्पदा (assets) के लिए प्रयुक्त होती है जो किसी व्यक्ति से सम्बन्धित हो या उस व्यक्ति ने किसी अन्य को समर्पित कर दिया हो परन्तु अपने लाभ के लिए उस वस्तु की व्यवस्था करने का अधिकार सुरक्षित रखता हो।

रेस या वस्तु के पार्थिव और अपार्थिव वर्गीकरण तथा वस्तु या अधिकारों के स्वरूप के अनुसार सम्पत्ति का वर्गीकरण विभिन्न प्रकार से हुआ है जैसे, पार्थिव या अपार्थिव; चल या अचल तथा वास्तविक या व्यक्तिगत। सम्पत्ति के साथ अन्य विशिष्ट शब्दों जैसे व्यक्तिगत या सार्वजनिक, पैतृक, दाययोग्य, संयुक्त पारिवारिक, समाधिकारिक आदि के संयुक्त कर देने से सम्पत्ति के स्वरूप के साथ सम्बन्ध व्यक्त होता है।

सम्पत्ति की वैधानिक व्याख्या

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सम्पत्ति की वैधानिक व्याख्या के अनुसार इसके कई अर्थ है। सम्पत्ति के अन्तर्गत किसी व्यक्ति के द्वारा किए गए शारीरिक तथा मानसिक परिश्रम के फल भी आते हैं। कोई भी व्यक्ति अपनी किसी वस्तु के बदले में जो कुछ भी पाता है, जो कुछ भी उसे दिया जाता है और जिसे कानून द्वारा उस व्यक्ति का माना जाता है अथवा उसे प्रयोग करने, भोग करने तथा व्यवस्था करने का अधिकार प्रदान किया जाता है, वह सब उस व्यक्ति की व्यक्तिगत सम्पत्ति कहलाती है। परन्तु कानून द्वारा मान्यता न प्राप्त होने पर उसे सम्पत्ति नहीं कहा जा सकता और तब विधिक परिणाम की दृष्टि से व्यक्ति और वस्तु के बीच कोई सम्बन्ध नहीं रह जाता है।

बाहरी कड़ियाँ

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