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अब्दुल हमीद द्वितीय

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द्वितीय अब्दुल हमीद
السلطان عبد الحميد الثاني
इस्लाम के ख़लीफ़ा
अमीरुल मुमिनीन
उस्मानी साम्राज्य के सुल्तान
कैसर-ए रूम
ख़ादिम उल हरमैन अश्शरीफ़ैन
26वें उस्मानी सुल्तान (बादशाह)
शासन31 अगस्त 1876 – 27 अप्रैल 1909
राज्याभिषेक7 सितम्बर 1876
पूर्वाधिकारीमुराद पंचम
उत्तराधिकारीमहमद पंचम
जन्म21 सितम्बर 1842[1][2]
तोपकापी महल, क़ुस्तुंतुनिया, उस्मानियाe
निधन10 फ़रवरी 1918(1918-02-10) (उम्र 75 वर्ष)
बेयलेरबेय महल, क़ुस्तुंतुनिया, उस्मानिया
समाधि
फ़ातिह, इस्तांबुल
युग तिथियाँ
1828–1908
शाही ख़ानदानउस्मानी
पिताअब्दुल मजीद प्रथमI
माताजैविक माँ:
तिरिमुझ़्गान क़ादन
दत्तक माँr:
परस्तु क़ादन
धर्मसुन्नी इस्लाम
तुग़राद्वितीय अब्दुल हमीद السلطان عبد الحميد الثاني के हस्ताक्षर

अबुल हमीद द्वितीय (उस्मानी तुर्कीयाई: عبد الحميد ثانی, `Abdü’l-Ḥamīd-i sânî; तुर्कीयाई: İkinci Abdülhamit; 21 सितम्बर 1842 - 10 फ़रवरी 1918) उस्मानी साम्राज्य के 34वें सुल्तान और आख़िरी शासक थे जिन्होंने बिगड़ती जा रही उस्मानी हुकूमत पर प्रभावी नियंत्रण रखा।[3] उनके दौर में उस्मानिया का पतन किया जा रहा था, ख़ासकर बालक़न के इलाक़ों में; रूस के साथ भी एक असफल युद्ध हुआ था। उन्होंने 31 आगस्त 1876 से 27 अप्रैल 1909 तक शासन किया, जब तक जवान तुर्क आंदोलन ने उनका तख़्त पलट कर दिया था। जवान उस्मानी आंलोलन की वजह से उन्होंने 1876 में प्रथम उस्मानी संविधान का प्रख्यापन किया।[4] यह उनके शुरूआती दौर में प्रगतिशील चिंतन की निशानी थी। लेकिन बाद में उस्मानी मामलों में पश्चिमी शक्तियों की दख़लअंदाज़ी को देखकर, उन्होंने 1878 में दोनों संसद और संविधान का विघटन किया।[4]

उनके दौर में उस्मानी साम्राज्य का आधुनिकीकरण हुआ था। रुमेलिया रेलवे और अनातोलिया रेलवे का विस्तार हुआ था और बग़दाद और हिजाज़ रेलवे का निर्माण किया गया था। आबादी पंजीकरण के लिए एक प्रणाली की स्थापना की गई थी और साथ ही साथ 1898 में प्रथम आधुनिक क़ानून विद्यालय की शुरुआत हुई। सबसे महत्वपूर्ण यह था कि बहुत सारे पेशेवर विद्यालय स्थापित हुए - जैसे कि क़ानून विद्यालय, कला विद्यालय, व्यापार विद्यालय, सिविल इंजीनियरिंग विद्यालय, पशुचिकित्सा विद्यालय, खेतीबाड़ी विद्यालय, भाषा विगज्ञान विद्यालय, इत्यादि। इस्तांबुल विश्वविद्यालय अब्दुल हमीद द्वारा 1881 में बंद किये जाने के बावजूद, फिर से 1900 में खोला गया और पूरे साम्राज्य में माध्यमिक, प्राथमिक, और सैन्य पाठशालाओं की स्थापना हुई।[4] रेलवे और टेलीग्राफ़ प्रणालियाँ आम तौर पर जर्मन कंपनियों द्वारा विकसित हुए थे। उनके दौर में उस्मानी साम्राज्य दिवालिया हो गया और 1881 में उस्मानी लोक ऋण प्रशासन की स्थापना हुई।

विदेश में अब्दुल हमीद को "लाल सुल्तान" या "शापित अब्दुल" के नामों से जाना जाता था क्योंकि उनके दौर में कई मौक़ों पर अल्पसंख्यकों का संहार किया जा रहा था और असंतुष्टि और गणतंत्रवाद को ख़ामोश करने के लिए ख़ुफ़िया पुलिस का इस्तेमाल किया जा रहा था।[5][6] 1905 में किसी ने इनकी हत्या करने का प्रयास किया था। इसकी वजह से आहिस्ता-आहिस्ता अब्दुल हमीद की मानसिक सेहत बिगड़ने लगी थी, जब तक आख़िर में वह तख़्त से हटा दिया गया था।[7]जब सुलतान अबदुल हमीद ने ये सुना के फ्रांस के एक थिएटर में हुजूर की शान में गुस्ताखी का ड्रामा पेश किया जाएगा तो....

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खलीफा ने हुकूमती ओहदेदार से फ्रांस के अखबार का पेज लेकर ऊंची आवाज में पढ़ना शुरु कर दिया। निहायत जलाल और गुस्से की हालत में सुल्तान का जिस्म कांप रहा था। जबकि आपका चेहरा लाल हो चुका था। आप वहां मौजूद हुकूमत के ओहदेदारों को मुखातिब करके अखबार में इश्तिहार से मुताल्लिक बता रहे थे कि फ्रांस के इस अखबार में इश्तिहार छपा है कि एक शख्स ने एक ड्रामा लिखा है उसमें हुजूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का किरदार भी बनाया है यह ड्रामा आज रात पेरिस के थिएटर में चलेगा। उस ड्रामे में हमारे नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की शान में गुस्ताखियां है वह फख्र ए कौनैन सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की शान में गुस्ताखियां करेंगे। अगर वह मेरे बारे में बकवास करते तो मुझे कोई गम नहीं होता। लेकिन अगर वह मेरे दीन और मेरे रसूल की शान में गुस्ताखी करें तो मैं जीते जी मर जाऊं। मैं तलवार उठा लूंगा। यहां तक कि अपनी जान उन पर फ़िदा कर दूंगा। चाहे मेरी गर्दन कट जाए या मेरे जिस्म के टुकड़े टुकड़े हो जाएं। ताकि कल बरोज कयामत रसूलल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के सामने शर्मिंदगी ना हो। मैं उन्हें बर्बाद कर दूंगा। यह बर्बाद हो जाएंगे राख हो जाएंगे। यह आग और तबाही हर जलील इंसान दुश्मन के लिए निशाने इबरत होगी। हम जंग करेंगे। उनकी तरह बेगैरत नहीं हो सकते। और यह भी मुमकिन नहीं कि हम अपने दिफ़ा से पीछे हट जाएं।

हम उनसे जंग करेंगे। खलीफा निहायत जलाल में बाआवाज बुलंद गुस्ताख ए रसूल के खिलाफ जंग का ऐलान कर रहे थे। इसी बीच में सुल्तान ने फ्रांसीसी सफीर को तलब करने के अहकामात जारी कर दिए। कुछ ही देर में खलीफा दरबार में रिवायती लिबास फाखराना जो शायद फ्रांसीसी सफीर पर हैबत डालने के लिए जेबतन किया था। निहायत जलाल और बेचैनी की हालत में बजाए बैठने के उसके सामने खड़े थे। और फ्रांसीसी सफ़ीर उनके सामने हाजिर था।

सुल्तान की हालत से उसे अंदाजा हो रहा था कि उसे बिलावजह तलब नहीं किया गया है। उसके माथे पर पसीना आ चुका था। जबकि जिस्म पर कपकपी तारी थी। और टांगे सुल्तान के खौफ से कांप रही थी। सुल्तान ने फ्रांसीसी सफ़ीर को मुखातिब किया। सफ़ीर साहब हम मुसलमान हैं, अपने रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से बहुत ज्यादा मोहब्बत करते हैं। इसी वजह से उनसे मोहब्बत करने वाले पर अपनी जान को कुर्बान करते हैं। और मुझे भी कोई तरद्दुद नहीं कि मैं भी हुजूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम पर जान कुर्बान करता हूं।

हमने सुना है कि आपने एक थिएटर ड्रामा बनाया है। जो नबी ए करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की तौहीन पर मुसतमिल है। यह कहकर खलीफा ने फ्रांसीसी सफ़ीर की तरफ कदम बढ़ाया बढ़ाना शुरू किया। खलीफा कहते जा रहे थे मैं बादशाह हूं मलकान का, इराक का ,शाम का, लेबनान का, हज्जाज का, काफकाज़ का, एजेंसी का और दारुलहुकूमत का मैं खलीफतुल इस्लाम अब्दुल हमीद खान हूं।

यहां तक कि खलीफा फ्रांसीसी सफ़ीर के करीब पहुंच गए। और फासला निहायत कम हो गया। फ्रांसीसी सफीर के जिस्म पर लरजा तारी था। वह खलीफा के जलाल के सामने बहुत मुश्किल से खड़ा था। खलीफा ने फ्रांसीसी सफ़ीर की आंखों में आंखें डालकर निहायत शफाकाना लहजे में उससे कहा कि अगर तुमने इस ड्रामे को ना रोका तो मैं तुम्हारी दुनिया तबाह कर दूंगा। यह कहकर खलीफा अब्दुल हमीद सानी ने ड्रामे के इश्तिहार वाला अखबार फ्रांसीसी सफीर को दिया। और निहायत तेजी से दरबार से निकल गए।

फ्रांसीसी सफीर ने उस अखबार को उठाया, फौरी तौर पर डगमगाता हुआ दरबार से खलीफा के जाने के बाद दीवारों और फर्नीचर का सहारा लेते हुए बाहर निकला। और सीधा सफारतखाने पहुंचा और एक निहायत तेज़रफ्तार पैगाम अपनी हुकूमत को भेज दिया। कहा अगर यूरोप को अपनी आंखों से जलता हुआ नहीं देखना चाहते और फ्रांस की फसीलो पर इस्लामी परचम नहीं देखना चाहते, तो फौरी तौर पर गुस्ताखाना ड्रामे को रोक दो।

उस्मानी लश्कर हुक्म के इंतेजार में खड़े हैं उनके जहाज बंदरगाह पर हुक्म के इंतजार में हैं। और पैदल फौज और तोपखाने छावनियों से निकल चुका है। खलीफा अब्दुल हमीद सानी फ्रांसीसी सफ़ीर को दरबार में तलब करने और जंग का ऐलान करने के बाद चुप नहीं रहे। उन्होंने फौरी तौर पर अपने मुशीर खास को अपने दफ्तर में तलब कर लिया। और उसे फौरी तौर पर पूरी खिलाफत में एक सर्कूलर जारी करने का हुक्म दिया। यह सर्कुलर खलीफा ने खुद अपनी ज़बानी लिखवाया जो कुछ ऐसा था। फ्रांसीसियों की इस्लाम के खिलाफ कार्रवाइयां हद से आगे बढ़ चुकी है। हम फिर भी पास अदब रखे हुए हैं। लेकिन अब हमारे सब्र का पैमाना लबरेज़ हो चुका है। अब हम खिलाफत का परचम बुलंद करने जा रहे हैं। और फ्रांसीसीयों से एक फैसला कुंन जंग करने जा रहे हैं।

यह हुक्म है खलीफतूल अर्द जलालतूल मलिक अब्दुल हमीद खान का, अब हम उनसे उनकी जबान में बात करेंगे। मुशीर खुसूसी खलीफा अब्दुल हमीद के लहजे में तलवार की काट साफ महसूस कर रहा था। उसकी रीड की हड्डी में एक सनसनी की लहर दौड़ गई। खलीफा अब्दुल हमीद की फ्रांसीसी सफीर की दरबार में तलबी और जंग हुक्मनामा के साथ फौजों को तैयार रहने के अहकाम ने ही इस्लाम दुश्मनों पर खौफ तारी कर दिया। पूरी दुनिया मुंतज़िर थी कि अब क्या होगा? यूरोप कांप उठा फ्रांस ने घुटने टेक दिए।

खलीफा अपने खास कमरे में मौजूद थे। जहां वह हुकूमत के कामकाज से मुतल्लिक और फैसले लिया करते थे। अचानक एक हुकूमत का ओहदेदार हंसता हुआ कमरे में बगैर इजाजत ही दाखिल हुआ। और बोला जनाब एक खुशखबरी है। खलीफा वह क्या है ? हुजूर फ्रांसीसियों ने उस ड्रामे को ही नहीं रोका बल्कि उस थेयटर को हमेशा के लिए बंद कर दिया है। जिसने नबी ए करीम सल्लल्लाहो अलेही वसल्लम की शान में गुस्ताखी का इरादा किया था।

खलीफा अब्दुल हमीद हुकूमत के ओहदेदार की बात करने के दौरान ही नमनाक हो चुके थे। आप की जबान से फर्त जज्बात से सिर्फ अलहमदुलिल्ला ही निकल सका।

हुकूमती ओहदेदार ने खलीफा को बताया कि पूरे आलम ए इस्लाम से उनके लिए शुक्रिया के पैगाम आ रहे हैं।

इंग्लिशतान लीवर पोल के एक इस्लामी तंजीम ने उस ड्रामे के रोके जाने की खबर दी है। गैर मुस्लिम भी सड़कों पर निकल आए कि हम मुसलमानों के रसूल की गुस्ताखी बर्दाश्त नहीं कर सकते। वह आपके लिए सेहत व आफ़ियत की दुआएं कर रहे हैं। मिस्र व अल ज्ज़ायरा में लोग खुशी के मारे सड़कों पर निकल आए हैं। मेरे सरदार अल्लाह आप से राजी हो। यह कहकर हुकूमती ओहदेदार खामोश हुआ। और मोअद्दब हो गया।

खलीफा अब्दुल हमीद की गर्दन अल्लाह की बारगाह में सजदा ब सजूद हो चुकी थी। आंखों से आंसू जारी। कुछ देर बाद सुल्तान ने हिम्मत इकट्ठा की और गर्दन उठाई और उस हुकूमती ओहदेदार से मुखातिब हुए। ऐ! पाशा मुझे इज्जत सिर्फ इसलिए मिली है कि मैं उसी दीन का अदना सा खादिम हूं मुझे किसी बड़े लक़ब की जरूरत नहीं। यह कहकर सुल्तान ने हाथ पीछे को बांध लिए और महल के दौरे पर निकल खड़े हुए।

वह वक्त था जब खिलाफत उस्मानिया की हैबत और जलालत से यूरोप और कुफ्फार के मरकज हिल जाया करते थे।

प्रारंभिक जीवन

अब्दुल हामिद द्वितीय का जन्म 21 सितंबर 1842 को सिरागन पैलेस, ओर्टाकोय या टोपकापी पैलेस, दोनों इस्तांबुल में हुआ था। वह सुल्तान अब्दुलमजीद प्रथम[1] और तिरिमुजगन कादीन (सर्कसिया, 20 अगस्त 1819 - कॉन्स्टेंटिनोपल, फेरिये पैलेस, 2 नवंबर 1853) के पुत्र थे, [7][8] जिसका मूल नाम विरजिनिया था।[9] अपनी माँ की मृत्यु के बाद, वह अपने पिता की कानूनी पत्नी, पेरेस्टु कादीन का दत्तक पुत्र बन गया। पेरेस्टू अब्दुल हामिद की सौतेली बहन सेमिले सुल्तान की दत्तक मां भी थीं, जिनकी मां ड्यूजडिल कादीन की 1845 में दो साल की उम्र में मां के बिना मृत्यु हो गई थी। दोनों का पालन-पोषण एक ही घर में हुआ जहां उन्होंने अपना बचपन एक साथ बिताया।

कई अन्य तुर्क सुल्तानों के विपरीत, अब्दुल हामिद द्वितीय ने दूर देशों का दौरा किया। सिंहासन पर बैठने से नौ साल पहले, वह अपने चाचा सुल्तान अब्दुल अजीज के साथ पेरिस (30 जून-10 जुलाई 1867), लंदन (12-23 जुलाई 1867), वियना (28-30 जुलाई 1867) और राजधानियों की यात्रा पर गए थे। 1867 की गर्मियों में कई अन्य यूरोपीय देशों के शहर (वे 21 जून को कॉन्स्टेंटिनोपल से चले गए और 7 अगस्त को लौट आए)।

ओटोमन सिंहासन परिग्रहण

31 अगस्त 1876 को अपने भाई मुराद के अपदस्थ होने के बाद अब्दुल हामिद गद्दी पर बैठे। उनके राज्यारोहण पर, कुछ टिप्पणीकार इस बात से प्रभावित हुए कि वह व्यावहारिक रूप से बिना किसी उपस्थिति के इयूप सुल्तान मस्जिद तक गए, जहाँ उन्हें उस्मान की तलवार भेंट की गई। अधिकांश लोगों को उम्मीद थी कि अब्दुल हमीद द्वितीय उदारवादी आंदोलनों का समर्थन करेंगे, लेकिन वह साम्राज्य के लिए बहुत कठिन और महत्वपूर्ण समय में सिंहासन पर बैठे। आर्थिक और राजनीतिक उथल-पुथल, बाल्कन में स्थानीय युद्ध और रूसी-तुर्की युद्ध (1877-1878) ने साम्राज्य के अस्तित्व को खतरे में डाल दिया।

प्रथम संवैधानिक युग, 1876-1878

अब्दुल हामिद ने किसी प्रकार की संवैधानिक व्यवस्था को साकार करने के लिए यंग ओटोमन्स के साथ काम किया। अपने सैद्धांतिक स्थान में यह नया रूप इस्लामी तर्कों के साथ एक उदार परिवर्तन को साकार करने में मदद कर सकता है। यंग ओटोमन्स का मानना था कि आधुनिक संसदीय प्रणाली परामर्श या शूरा की प्रथा का पुनर्कथन थी, जो प्रारंभिक इस्लाम में मौजूद थी।

दिसंबर 1876 में, बोस्निया और हर्जेगोविना में 1875 के विद्रोह, सर्बिया और मोंटेनेग्रो के साथ चल रहे युद्ध और 1876 के बल्गेरियाई विद्रोह को खत्म करने में इस्तेमाल की गई क्रूरता से पूरे यूरोप में पैदा हुई भावना के कारण, अब्दुल हामिद ने संविधान और इसकी संसद की घोषणा की। [1] नए संविधान की स्थापना के लिए आयोग का नेतृत्व मिधात पाशा ने किया था, और कैबिनेट ने 6 दिसंबर 1876 को संविधान पारित किया, जिससे सुल्तान द्वारा सीनेट नियुक्तियों के साथ द्विसदनीय विधायिका की अनुमति मिल गई। ओटोमन साम्राज्य में पहला चुनाव 1877 में हुआ था। महत्वपूर्ण बात यह है कि संविधान ने अब्दुल हामिद को राज्य के लिए खतरा समझे जाने वाले किसी भी व्यक्ति को निर्वासित करने का अधिकार दिया।

कॉन्स्टेंटिनोपल सम्मेलन में प्रतिनिधि एक संविधान की घोषणा से आश्चर्यचकित थे, लेकिन सम्मेलन में यूरोपीय शक्तियों ने एक महत्वपूर्ण परिवर्तन के रूप में संविधान को खारिज कर दिया; उन्होंने 1856 के संविधान (इस्लाहत हत-ए हुमायुनु) या 1839 गुलहेन आदेश (हट-ए सेरिफ़) को प्राथमिकता दी, और सवाल किया कि क्या लोगों की आधिकारिक आवाज़ के रूप में कार्य करने के लिए संसद आवश्यक थी।

किसी भी स्थिति में, ओटोमन साम्राज्य के कई अन्य संभावित सुधारों की तरह, यह लगभग असंभव साबित हुआ। रूस युद्ध के लिए लामबंद होता रहा। 1877 की शुरुआत में, ओटोमन साम्राज्य रूसी साम्राज्य के साथ युद्ध में चला गया।

रूस के साथ युद्ध

अब्दुल हमीद का सबसे बड़ा डर, विघटन के निकट, 24 अप्रैल 1877 को रूसी युद्ध की घोषणा के साथ महसूस हुआ। उस संघर्ष में, ओटोमन साम्राज्य ने यूरोपीय सहयोगियों की मदद के बिना लड़ाई लड़ी। रूसी चांसलर प्रिंस गोरचकोव ने उस समय तक रीचस्टेड समझौते के साथ ऑस्ट्रियाई तटस्थता को प्रभावी ढंग से खरीद लिया था। ब्रिटिश साम्राज्य, हालांकि अभी भी भारत में ब्रिटिश उपस्थिति के लिए रूसी खतरे से डर रहा था, बल्गेरियाई विद्रोह को दबाने में ओटोमन की क्रूरता की रिपोर्टों के बाद, ओटोमन के खिलाफ जनता की राय के कारण खुद को संघर्ष में शामिल नहीं किया। रूसी जीत का एहसास तुरंत हो गया; फरवरी 1878 में संघर्ष समाप्त हो गया। युद्ध के अंत में हस्ताक्षरित सैन स्टेफ़ानो की संधि में कठोर शर्तें लगाई गईं: ओटोमन साम्राज्य ने रोमानिया, सर्बिया और मोंटेनेग्रो को स्वतंत्रता दी; इसने बुल्गारिया को स्वायत्तता प्रदान की; बोस्निया और हर्जेगोविना में सुधार स्थापित किए गए; और डोब्रुद्झा के कुछ हिस्सों को रोमानिया को और आर्मेनिया के कुछ हिस्सों को रूस को सौंप दिया, जिसके लिए भारी क्षतिपूर्ति भी दी गई। युद्ध के बाद, अब्दुल हामिद ने फरवरी 1878 में संविधान को निलंबित कर दिया और मार्च 1877 में इसकी एकान्त बैठक के बाद संसद को बर्खास्त कर दिया। अगले तीन दशकों तक, ओटोमन साम्राज्य पर येल्डिज़ पैलेस से अब्दुल हामिद का शासन था।[1]

चूंकि रूस नए स्वतंत्र राज्यों पर हावी हो सकता था, सैन स्टेफ़ानो की संधि से दक्षिणपूर्वी यूरोप में देश का प्रभाव बहुत बढ़ गया था। महान शक्तियों (विशेष रूप से यूनाइटेड किंगडम) के आग्रह के कारण, संधि को बाद में बर्लिन कांग्रेस में संशोधित किया गया ताकि रूस द्वारा प्राप्त महान लाभों को कम किया जा सके। इन एहसानों के बदले में, साइप्रस को 1878 में ब्रिटेन को सौंप दिया गया था। मिस्र में परेशानियाँ थीं, जहाँ एक बदनाम खेडिव को अपदस्थ करना पड़ा था। अब्दुल हामिद ने उरबी पाशा के साथ संबंधों को गलत तरीके से संभाला, और परिणामस्वरूप ब्रिटेन ने 1882 में दोनों प्रांतों पर नियंत्रण स्थापित करने के लिए अपनी सेना भेजकर मिस्र और सूडान पर वास्तविक नियंत्रण हासिल कर लिया। साइप्रस, मिस्र और सूडान 1914 तक स्पष्ट रूप से ओटोमन प्रांत बने रहे, जब प्रथम विश्व युद्ध में केंद्रीय शक्तियों के पक्ष में ओटोमन की भागीदारी के जवाब में ब्रिटेन ने आधिकारिक तौर पर उन क्षेत्रों पर कब्जा कर लिया।

शासन

विघटन

अब्दुल हामिद का ओटोमन नौसेना के सुधारवादी एडमिरलों के प्रति अविश्वास (जिन पर उन्हें उनके खिलाफ साजिश रचने और संविधान को वापस लाने की कोशिश करने का संदेह था) और ओटोमन बेड़े (उनके पूर्ववर्ती अब्दुल के शासनकाल के दौरान दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा बेड़ा) पर ताला लगाने का उनका निर्णय था। गोल्डन हॉर्न के अंदर अजीज) ने अप्रत्यक्ष रूप से अपने शासनकाल के दौरान और उसके बाद उत्तरी अफ्रीका, भूमध्य सागर और एजियन सागर में ओटोमन के विदेशी क्षेत्रों और द्वीपों को नुकसान पहुंचाया।

वित्तीय कठिनाइयों ने उन्हें ओटोमन राष्ट्रीय ऋण पर विदेशी नियंत्रण के लिए सहमति देने के लिए मजबूर किया। दिसंबर 1881 में जारी एक डिक्री में, साम्राज्य के राजस्व का एक बड़ा हिस्सा (ज्यादातर विदेशी) बांडधारकों के लाभ के लिए सार्वजनिक ऋण प्रशासन को सौंप दिया गया था।

1885 में बुल्गारिया का पूर्वी रुमेलिया के साथ मिलन साम्राज्य के लिए एक और झटका था। एक स्वतंत्र और शक्तिशाली बुल्गारिया के निर्माण को ओटोमन साम्राज्य के लिए एक गंभीर खतरे के रूप में देखा गया। कई वर्षों तक अब्दुल हामिद को बुल्गारिया के साथ इस तरह से व्यवहार करना पड़ा जिससे न तो रूसी और न ही जर्मन इच्छाओं का विरोध हो। अल्बानियाई लीग ऑफ प्रिज़रेन और ग्रीक और मोंटेनिग्रिन सीमाओं के परिणामस्वरूप अल्बानियाई प्रश्न के संबंध में भी महत्वपूर्ण समस्याएं थीं, जहां यूरोपीय शक्तियां निर्धारित थीं कि बर्लिन कांग्रेस के निर्णयों को प्रभावी किया जाना चाहिए।

क्रेते को 'विस्तारित विशेषाधिकार' दिए गए, लेकिन इससे आबादी संतुष्ट नहीं हुई, जो ग्रीस के साथ एकीकरण की मांग कर रही थी। 1897 की शुरुआत में द्वीप पर ओटोमन शासन को उखाड़ फेंकने के लिए एक यूनानी अभियान क्रेते के लिए रवाना हुआ। इस अधिनियम के बाद युद्ध हुआ, जिसमें ऑटोमन साम्राज्य ने ग्रीस को हरा दिया (देखें ग्रीको-तुर्की युद्ध (1897)); लेकिन कॉन्स्टेंटिनोपल की संधि के परिणामस्वरूप, क्रेते को यूनाइटेड किंगडम, फ्रांस और रूस द्वारा एन डिपो पर कब्जा कर लिया गया था। ग्रीस के प्रिंस जॉर्ज को शासक नियुक्त किया गया और क्रेते प्रभावी रूप से ओटोमन साम्राज्य से हार गया।[1] 'अम्मिया', 1889-90 में स्थानीय शेखों की ज्यादतियों के खिलाफ ड्रुज़ और अन्य सीरियाई लोगों के बीच एक विद्रोह था, जिसके कारण विद्रोहियों की मांगों के प्रति समर्पण हुआ, साथ ही बेल्जियम और फ्रांसीसी कंपनियों को बेरूत और दमिश्क के बीच एक रेलमार्ग प्रदान करने के लिए रियायतें मिलीं।

राजनीतिक निर्णय और सुधार

अधिकांश लोगों को उम्मीद थी कि अब्दुल हमीद द्वितीय उदारवादी विचार रखेंगे, और कुछ रूढ़िवादी उन्हें एक खतरनाक सुधारक के रूप में संदेह की दृष्टि से देखते थे। लेकिन सुधारवादी यंग ओटोमन्स के साथ काम करने और एक उदार नेता के रूप में दिखाई देने के बावजूद, वह तेजी से रूढ़िवादी हो गए। गद्दी संभालने के तुरंत बाद. इस्तिबदाद के नाम से जानी जाने वाली प्रक्रिया में, अब्दुल हामिद अपने मंत्रियों को सचिवों में बदलने में सफल रहे, और साम्राज्य के अधिकांश प्रशासन को येल्डिज़ पैलेस में अपने हाथों में केंद्रित कर दिया। सार्वजनिक धन में चूक, खाली खजाना, बोस्निया और हर्जेगोविना में 1875 का विद्रोह, सर्बिया और मोंटेनेग्रो के साथ युद्ध, रूसी-तुर्की युद्ध का परिणाम और अब्दुल हामिद की सरकार द्वारा बल्गेरियाई विद्रोह को खत्म करने के लिए पूरे यूरोप में भावना पैदा हुई । सभी ने महत्वपूर्ण परिवर्तन लागू करने के बारे में उनकी आशंका में योगदान दिया।

शिक्षा के लिए उनके प्रयास के परिणामस्वरूप 18 पेशेवर स्कूलों की स्थापना हुई और 1900 में, दारुलफुनुन-उ साहाने, जिसे अब इस्तांबुल विश्वविद्यालय के रूप में जाना जाता है, की स्थापना की गई।[1] उन्होंने पूरे साम्राज्य में प्राथमिक, माध्यमिक और सैन्य स्कूलों की एक बड़ी प्रणाली भी बनाई। 12 साल की अवधि (1882-1894) में 51 माध्यमिक विद्यालयों का निर्माण किया गया। चूँकि हामिदियन युग में शैक्षिक सुधारों का लक्ष्य विदेशी प्रभाव का मुकाबला करना था, इन माध्यमिक विद्यालयों ने यूरोपीय शिक्षण तकनीकों का उपयोग किया, फिर भी छात्रों के भीतर तुर्क पहचान और इस्लामी नैतिकता की एक मजबूत भावना पैदा की।

अब्दुल हामिद ने न्याय मंत्रालय को भी पुनर्गठित किया और रेल और टेलीग्राफ प्रणालियाँ विकसित कीं। साम्राज्य के दूर-दराज के हिस्सों को शामिल करने के लिए टेलीग्राफ प्रणाली का विस्तार हुआ। रेलवे ने 1883 तक कॉन्स्टेंटिनोपल और वियना को जोड़ा, और कुछ ही समय बाद ओरिएंट एक्सप्रेस ने पेरिस को कॉन्स्टेंटिनोपल से जोड़ा। उनके शासन के दौरान, ओटोमन-नियंत्रित यूरोप और अनातोलिया को कॉन्स्टेंटिनोपल से जोड़ने के लिए ओटोमन साम्राज्य के भीतर रेलवे का विस्तार हुआ। ओटोमन साम्राज्य के भीतर यात्रा और संचार करने की बढ़ी हुई क्षमता ने साम्राज्य के बाकी हिस्सों पर कॉन्स्टेंटिनोपल के प्रभाव को मजबूत करने का काम किया।

अब्दुल हमीद ने अपनी सुरक्षा के लिए कड़े कदम उठाये। अब्दुल अजीज की गवाही की याद उनके दिमाग में थी और उन्हें विश्वास हो गया कि संवैधानिक सरकार एक अच्छा विचार नहीं था। इस वजह से, सूचना को सख्ती से नियंत्रित किया गया और प्रेस को सख्ती से सेंसर किया गया। एक गुप्त पुलिस (उमुर-उ हाफिये) और मुखबिरों का एक नेटवर्क पूरे साम्राज्य में मौजूद था, और दूसरे संवैधानिक युग और ओटोमन उत्तराधिकारी राज्यों के कई प्रमुख लोगों को गिरफ्तार किया गया और/या निर्वासित किया गया। असंतोष को रोकने के लिए स्कूली पाठ्यक्रमों का बारीकी से निरीक्षण किया गया। विडंबना यह है कि अब्दुल हामिद ने जिन स्कूलों की स्थापना की और उन्हें नियंत्रित करने की कोशिश की, वे "असंतोष के प्रजनन स्थल" बन गए क्योंकि छात्र और शिक्षक समान रूप से सेंसर के अनाड़ी प्रतिबंधों से परेशान थे।

अर्मेनियाई प्रश्न

1890 के आसपास, अर्मेनियाई लोगों ने बर्लिन सम्मेलन में उनसे किये गये वादे के अनुसार सुधारों के कार्यान्वयन की मांग करना शुरू कर दिया। ऐसे उपायों को रोकने के लिए, 1890-91 में, अब्दुल हामिद ने उन डाकुओं को अर्ध-आधिकारिक दर्जा दिया जो पहले से ही प्रांतों में अर्मेनियाई लोगों के साथ सक्रिय रूप से दुर्व्यवहार कर रहे थे। कुर्दों और तुर्कमान जैसे अन्य जातीय समूहों से बने और राज्य द्वारा सशस्त्र, उन्हें हामिदिये अलायलारि ("हामिडियन रेजिमेंट") कहा जाने लगा।[23] हामिदिये और कुर्द लुटेरों को अर्मेनियाई लोगों पर हमला करने, अनाज, खाद्य पदार्थों के भंडार को जब्त करने और पशुओं को भगाने की खुली छूट दी गई थी, और उन्हें सजा से बचने का भरोसा था क्योंकि वे केवल कोर्ट-मार्शल के अधीन थे। [24] ऐसी हिंसा का सामना करने के लिए, अर्मेनियाई लोगों ने क्रांतिकारी संगठनों की स्थापना की, सोशल डेमोक्रेट हंचकियन पार्टी (हंचक; 1887 में स्विट्जरलैंड में स्थापित) और अर्मेनियाई रिवोल्यूशनरी फेडरेशन (एआरएफ या दशनाकत्सुतियुन, 1890 में तिफ़्लिस में स्थापित)। 1892 में मर्ज़िफ़ॉन में और 1893 में टोकाट में झड़पें हुईं और अशांति हुई। अब्दुल हामिद ने अर्मेनियाई लोगों के खिलाफ स्थानीय मुसलमानों (ज्यादातर मामलों में कुर्द) का इस्तेमाल करते हुए इन विद्रोहों को कठोर तरीकों से दबाने में संकोच नहीं किया। ऐसी हिंसा के परिणामस्वरूप, 300,000 अर्मेनियाई लोग मारे गए, जिसे हामिडियन नरसंहार के रूप में जाना जाता है। नरसंहार की ख़बरें यूरोप और संयुक्त राज्य अमेरिका में व्यापक रूप से रिपोर्ट की गईं और विदेशी सरकारों और मानवीय संगठनों से समान रूप से कड़ी प्रतिक्रियाएँ आईं।[27] इसलिए, अब्दुल हमीद को पश्चिम में "खूनी सुल्तान" या "लाल सुल्तान" कहा जाता था। 21 जुलाई 1905 को, अर्मेनियाई रिवोल्यूशनरी फेडरेशन ने एक सार्वजनिक उपस्थिति के दौरान कार बम विस्फोट से उनकी हत्या करने का प्रयास किया, लेकिन सुल्तान को एक मिनट की देरी हुई और बम बहुत जल्दी फट गया, जिससे 26 लोग मारे गए, 58 घायल हो गए (जिनमें से चार की मृत्यु हो गई) अस्पताल में इलाज) और 17 कारों को नष्ट करना। सुधार की अर्मेनियाई इच्छा से निपटने के साथ-साथ इस निरंतर आक्रामकता ने पश्चिमी यूरोपीय शक्तियों को तुर्कों के साथ अधिक व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाने के लिए प्रेरित किया।

विदेश नीति

इसका एक उदाहरण जो 1897 से 1898 तक काबा के पश्चाताप के दरवाजे पर लटका हुआ था। इसे मिस्र में अब्दुल हामिद द्वितीय के ओटोमन साम्राज्य के शासन के तहत बनाया गया था। उनका नाम कुरान की एक आयत के बाद पांचवीं पंक्ति में जोड़ा गया है।[28]

अब्दुल हामिद का मानना था कि तंज़ीमत के विचार साम्राज्य के अलग-अलग लोगों को ओटोमनवाद जैसी एक समान पहचान में नहीं ला सकते। उन्होंने एक नया वैचारिक सिद्धांत, पैन-इस्लामवाद अपनाया; चूंकि 1517 से शुरू होने वाले ओटोमन सुल्तान भी नाममात्र के खलीफा थे, इसलिए वह इस तथ्य को बढ़ावा देना चाहते थे और उन्होंने ओटोमन खलीफा पर जोर दिया। उन्होंने ओटोमन साम्राज्य में जातीयताओं की विशाल विविधता देखी और उनका मानना था कि इस्लाम ही उनके मुस्लिम लोगों को एकजुट करने का एकमात्र तरीका है।

उन्होंने यूरोपीय शक्तियों के अधीन रहने वाले मुसलमानों को एक राज्य व्यवस्था में एकजुट होने के लिए कहते हुए पैन-इस्लामवाद को प्रोत्साहित किया। इसने कई यूरोपीय देशों को खतरे में डाल दिया, जैसे ऑस्ट्रिया को बोस्नियाई मुसलमानों के माध्यम से, रूस को टाटारों और कुर्दों के माध्यम से, फ्रांस और स्पेन को मोरक्को के मुसलमानों के माध्यम से, और ब्रिटेन को भारतीय मुसलमानों के माध्यम से। [29] ओटोमन साम्राज्य में विदेशियों के विशेषाधिकार, जो एक प्रभावी सरकार के लिए बाधा थे, कम कर दिए गए। अपने शासनकाल के अंत में, उन्होंने अंततः रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण कॉन्स्टेंटिनोपल-बगदाद रेलवे और कॉन्स्टेंटिनोपल-मदीना रेलवे का निर्माण शुरू करने के लिए धन उपलब्ध कराया, जिससे हज के लिए मक्का की यात्रा अधिक कुशल हो गई। उनके पदच्युत होने के बाद, दोनों रेलवे के निर्माण में तेजी लाई गई और यंग तुर्कों द्वारा इसे पूरा किया गया। इस्लाम और खलीफा की सर्वोच्चता का प्रचार करने के लिए मिशनरियों को दूर देशों में भेजा गया। अपने शासन के दौरान, अब्दुल हामिद ने ज़ायोनीवादियों को फ़िलिस्तीन में बसने की अनुमति देने वाले चार्टर के बदले में ओटोमन ऋण (सोने में 150 मिलियन पाउंड स्टर्लिंग) का एक बड़ा हिस्सा चुकाने के थियोडोर हर्ज़ल के प्रस्तावों को अस्वीकार कर दिया। उन्हें हर्ज़ल के दूत को यह कहते हुए उद्धृत किया गया है कि "जब तक मैं जीवित हूं, मैं अपने शरीर को विभाजित नहीं करूंगा, वे केवल हमारी लाश को विभाजित कर सकते हैं।"

पैन-इस्लामवाद काफी सफल रहा। ग्रीको-ओटोमन युद्ध के बाद, कई मुसलमानों ने जीत का जश्न मनाया और ओटोमन की जीत को मुसलमानों की जीत के रूप में देखा। युद्ध के बाद मुस्लिम क्षेत्रों में विद्रोह, तालाबंदी और अखबारों में यूरोपीय उपनिवेशीकरण के खिलाफ आपत्तियां दर्ज की गईं।[29][32] हालाँकि, साम्राज्य के भीतर व्यापक असंतोष के कारण अब्दुल हामिद की मुस्लिम भावनाओं की अपील हमेशा बहुत प्रभावी नहीं थी। मेसोपोटामिया और यमन में अशांति स्थानिक थी; घर के नजदीक, सेना में और मुस्लिम आबादी के बीच केवल अपस्फीति और जासूसी की प्रणाली द्वारा वफादारी की एक झलक बनाए रखी गई थी

अमेरिका और फिलीपींस

संयुक्त राज्य अमेरिका के ओटोमन साम्राज्य के मंत्री ऑस्कर स्ट्रॉस द्वारा संपर्क किए जाने के बाद, अब्दुल हामिद ने सुलु सल्तनत के मोरोस को एक पत्र भेजा जिसमें उनसे कहा गया कि वे अमेरिकी अधिग्रहण का विरोध न करें और मोरो विद्रोह की शुरुआत में अमेरिकियों के साथ सहयोग करें। सुलु मोरोस ने अनुपालन किया।

अमेरिकी विदेश मंत्री जॉन हे ने 1898 में स्ट्रॉस को अब्दुल हामिद से संपर्क करने के लिए कहा और अनुरोध किया कि वह खलीफा के रूप में फिलीपींस में सुलु सल्तनत के मोरो सुलु मुसलमानों को एक पत्र लिखें और उन्हें अमेरिकी आधिपत्य के लिए प्रस्तुत होने के लिए कहें। और अमेरिकी सैन्य शासन। सुल्तान ने उन्हें बाध्य किया और पत्र लिखा, जिसे मक्का के माध्यम से सुलु भेजा गया, जहां से दो सुलु प्रमुख इसे सुलु के घर ले आए, और यह सफल रहा, क्योंकि "सुलु मोहम्मद ... ने विद्रोहियों में शामिल होने से इनकार कर दिया और खुद को अधीन कर लिया था हमारी सेना पर नियंत्रण, जिससे अमेरिकी संप्रभुता को मान्यता मिलती है।"[33] अब्दुल हामिद ने खलीफा के रूप में अपने पद का उपयोग करते हुए सुलु सुल्तान को आदेश दिया कि जब वे अमेरिकी नियंत्रण के अधीन हो जाएं तो अमेरिकियों का विरोध न करें या उनसे लड़ें नहीं।[34] राष्ट्रपति मैककिनले ने दिसंबर 1899 में छप्पनवीं कांग्रेस के पहले सत्र में अपने संबोधन में सुलु मोरोस को शांत करने में ओटोमन की भूमिका का उल्लेख नहीं किया, क्योंकि सुलु के सुल्तान के साथ समझौता 18 दिसंबर तक सीनेट को प्रस्तुत नहीं किया गया था। [35] अब्दुल हामिद की "पैन-इस्लामिक" विचारधारा के बावजूद, उन्होंने सुलु मुसलमानों को अमेरिका का विरोध न करने के लिए कहने में मदद के लिए स्ट्रॉस के अनुरोध को तुरंत स्वीकार कर लिया क्योंकि उन्हें लगा कि पश्चिम और मुसलमानों के बीच शत्रुता पैदा करने की कोई आवश्यकता नहीं है। [36] अमेरिकी सेना और सुलु सल्तनत के बीच सहयोग सुलु सुल्तान को ओटोमन सुल्तान द्वारा मनाए जाने के कारण था। जॉन पी. फिनले ने लिखा:

इन तथ्यों पर उचित विचार करने के बाद, खलीफा के रूप में सुल्तान ने फिलीपीन द्वीप के मुसलमानों को एक संदेश भेजा जिसमें उन्हें अमेरिकियों के खिलाफ किसी भी शत्रुता में शामिल होने से मना किया गया था, क्योंकि अमेरिकी शासन के तहत उनके धर्म में किसी भी हस्तक्षेप की अनुमति नहीं दी जाएगी। चूंकि मोरोस ने कभी भी इससे अधिक की मांग नहीं की, इसलिए यह आश्चर्य की बात नहीं है कि उन्होंने फिलिपिनो विद्रोह के समय, एगुइनाल्डो के एजेंटों द्वारा किए गए सभी प्रस्तावों को अस्वीकार कर दिया। राष्ट्रपति मैककिनले ने श्री स्ट्रॉस को उनके द्वारा किए गए उत्कृष्ट कार्य के लिए एक व्यक्तिगत धन्यवाद पत्र भेजा और कहा, इसकी उपलब्धि ने संयुक्त राज्य अमेरिका के कम से कम बीस हजार सैनिकों को मैदान में बचा लिया है।[38][39]

खलीफा के पद पर रहते हुए अमेरिकियों ने फिलीपींस में युद्ध के दौरान मुसलमानों से निपटने में मदद करने के लिए अब्दुल हमीद से संपर्क किया था, [40] और क्षेत्र के मुस्लिम लोगों ने अमेरिकियों की मदद के लिए अब्दुल हमीद द्वारा भेजे गए आदेश का पालन किया।

बेट्स संधि, जिस पर अमेरिकियों ने मोरो सुलु सल्तनत के साथ हस्ताक्षर किए थे और जिसने अपने आंतरिक मामलों और शासन में सल्तनत की स्वायत्तता की गारंटी दी थी, का अमेरिकियों द्वारा उल्लंघन किया गया, जिन्होंने तब मोरोलैंड पर आक्रमण किया, जिसके कारण 1904 में मोरो विद्रोह भड़क उठा और युद्ध भड़क उठा। अमेरिकियों और मोरो मुसलमानों के बीच और मोरो मुस्लिम महिलाओं और बच्चों के खिलाफ किए गए अत्याचार, जैसे मोरो क्रेटर नरसंहार।

जर्मनी का समर्थन

अब्दुल हामिद द्वितीय ने जनरल डोंग फक्सियांग के अधीन कार्यरत किंग शाही सेना की सेवा में चीनी मुस्लिम सैनिकों के साथ पत्र व्यवहार करने का प्रयास किया; उन्हें कांसु बहादुरों के नाम से भी जाना जाता था

ट्रिपल एंटेंटे - यूनाइटेड किंगडम, फ्रांस और रूस - ने ओटोमन साम्राज्य के साथ तनावपूर्ण संबंध बनाए रखे। अब्दुल हामिद और उनके करीबी सलाहकारों का मानना था कि साम्राज्य को इन महान शक्तियों द्वारा एक समान खिलाड़ी के रूप में माना जाना चाहिए। सुल्तान के विचार में, ओटोमन साम्राज्य एक यूरोपीय साम्राज्य था, जो ईसाइयों की तुलना में अधिक मुसलमानों के होने के कारण विशिष्ट था।

समय के साथ फ्रांस (1881 में ट्यूनीशिया पर कब्ज़ा) और ग्रेट ब्रिटेन (1882 में मिस्र में वास्तविक नियंत्रण की स्थापना) की ओर से दिखाए गए शत्रुतापूर्ण राजनयिक रवैये के कारण अब्दुल हामिद जर्मनी की ओर आकर्षित हुए।[1] कैसर विल्हेम द्वितीय की इस्तांबुल में अब्दुल हामिद द्वारा दो बार मेजबानी की गई, 21 अक्टूबर 1889 को और 5 अक्टूबर 1898 को। (विल्हेम द्वितीय ने बाद में 15 अक्टूबर 1917 को मेहमद वी के अतिथि के रूप में तीसरी बार कॉन्स्टेंटिनोपल का दौरा किया)। जर्मन अधिकारी (जैसे बैरन वॉन डेर गोल्ट्ज़ और बोडो-बोरीज़ वॉन डिटफर्थ) को ओटोमन सेना के संगठन की देखरेख के लिए नियुक्त किया गया था।)

ओटोमन सरकार के वित्त को पुनर्गठित करने के लिए जर्मन सरकारी अधिकारियों को लाया गया था। इसके अतिरिक्त, ऐसी अफवाह थी कि जर्मन सम्राट ने अपने तीसरे बेटे को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करने के विवादास्पद निर्णय में अब्दुल हामिद को सलाह दी थी।[45] जर्मनी की मित्रता परोपकारी नहीं थी; इसे रेलवे और ऋण रियायतों से बढ़ावा देना था। 1899 में, एक महत्वपूर्ण जर्मन इच्छा, बर्लिन-बगदाद रेलवे का निर्माण, को मंजूरी दे दी गई।

जर्मनी के कैसर विल्हेम द्वितीय ने भी चीनी मुस्लिम सैनिकों से परेशानी होने पर सुल्तान से मदद का अनुरोध किया। बॉक्सर विद्रोह के दौरान, चीनी मुस्लिम कांसु बहादुरों ने अन्य आठ राष्ट्र गठबंधन सेनाओं के साथ, जर्मन सेना के खिलाफ लड़ाई लड़ी और उन्हें हरा दिया। मुस्लिम कांसु बहादुरों और मुक्केबाजों ने 1900 में सेमुर अभियान में लैंगफैंग की लड़ाई में जर्मन कैप्टन गुइडो वॉन यूडोम के नेतृत्व वाली गठबंधन सेना को हराया और अंतर्राष्ट्रीय सेनाओं की घेराबंदी के दौरान फंसी हुई गठबंधन सेना को घेर लिया। गैसाली अभियान में, केवल दूसरे प्रयास में, गठबंधन सेनाएं पेकिंग की लड़ाई में चीनी मुस्लिम सैनिकों से लड़ने में कामयाब रहीं। कैसर विल्हेम चीनी मुस्लिम सैनिकों से इतने भयभीत थे कि उन्होंने अब्दुल हामिद से मुस्लिम सैनिकों को लड़ने से रोकने का कोई रास्ता खोजने का अनुरोध किया। अब्दुल हामिद ने कैसर की मांगों पर सहमति व्यक्त की और 1901 में एनवर पाशा [कौन?] को चीन भेजा, लेकिन उस समय तक विद्रोह समाप्त हो चुका था। क्योंकि ओटोमन्स यूरोपीय राष्ट्रों के खिलाफ संघर्ष नहीं चाहते थे और क्योंकि ओटोमन साम्राज्य जर्मन सहायता प्राप्त करने के लिए खुद को प्रेरित कर रहा था, ओटोमन खलीफा द्वारा चीनी मुसलमानों से मुक्केबाजों की सहायता करने से बचने के लिए एक आदेश जारी किया गया था और मिस्र और मुस्लिम भारतीय समाचार पत्रों में पुनर्मुद्रित किया गया था।

युवा तुर्क क्रांति

मैसेडोनियन संघर्ष के राष्ट्रीय अपमान के साथ-साथ महल के जासूसों और मुखबिरों के खिलाफ सेना में नाराजगी ने आखिरकार मामले को संकट में डाल दिया। यूनियन एंड प्रोग्रेस समिति (सीयूपी), एक यंग तुर्क संगठन जो विशेष रूप से रुमेलियन सेना इकाइयों में प्रभावशाली था, ने 1908 की गर्मियों में यंग तुर्क क्रांति शुरू की। अब्दुल हामिद को जब पता चला कि सैलोनिका में सैनिक इस्तांबुल पर मार्च कर रहे थे (23) जुलाई), तुरंत आत्मसमर्पण कर दिया। 24 जुलाई को एक आक्रोश ने 1876 के निलंबित संविधान की बहाली की घोषणा की; अगले दिन, और अधिक आक्रोश ने जासूसी और सेंसरशिप को समाप्त कर दिया, और राजनीतिक कैदियों की रिहाई का आदेश दिया।

17 दिसंबर को, अब्दुल हामिद ने सिंहासन से एक भाषण के साथ महासभा को फिर से खोला जिसमें उन्होंने कहा कि पहली संसद को "अस्थायी रूप से तब तक भंग कर दिया गया था जब तक कि पूरे देश में शिक्षा के विस्तार द्वारा लोगों की शिक्षा को पर्याप्त उच्च स्तर पर नहीं लाया गया था।

तख्तापलट

सुल्तान के नए रवैये ने खुद को राज्य में शक्तिशाली प्रतिक्रियावादी तत्वों के साथ साज़िश रचने के संदेह से नहीं बचाया, इस संदेह की पुष्टि 13 अप्रैल 1909 की प्रति-क्रांति के प्रति उनके रवैये से हुई, जिसे 31 मार्च की घटना के रूप में जाना जाता है, जब एक विद्रोह हुआ। राजधानी में सेना के कुछ हिस्सों में रूढ़िवादी उथल-पुथल से समर्थित सैनिकों ने हुसेन हिल्मी पाशा की सरकार को उखाड़ फेंका। युवा तुर्कों को राजधानी से बाहर निकालने के बाद, अब्दुल हामिद ने उनके स्थान पर अहमत तेवफिक पाशा को नियुक्त किया, और एक बार फिर संविधान को निलंबित कर दिया और संसद को बंद कर दिया। हालाँकि सुल्तान केवल कॉन्स्टेंटिनोपल के नियंत्रण में था जबकि यंग तुर्क अभी भी बाकी सेना और प्रांतों में प्रभावशाली थे। सीयूपी ने यथास्थिति बहाल करने के लिए महमूद शेवकेत पाशा से अपील की, जिन्होंने एक्शन आर्मी के रूप में जाना जाने वाला एक तदर्थ गठन का आयोजन किया, जिसने कॉन्स्टेंटिनोपल पर मार्च किया। सेवकेत पाशा के चीफ ऑफ स्टाफ कैप्टन मुस्तफा कमाल थे। एक्शन आर्मी सबसे पहले अया स्टेफानोस में रुकी, और मेहमद तलत के नेतृत्व में राजधानी से भागे हुए प्रतिनिधियों द्वारा स्थापित प्रतिद्वंद्वी सरकार के साथ बातचीत की। वहां गुप्त रूप से निर्णय लिया गया कि अब्दुल हमीद को गद्दी से उतारना है। जब एक्शन आर्मी ने इस्तांबुल में प्रवेश किया, तो अब्दुल हामिद की निंदा करते हुए एक फतवा जारी किया गया और संसद ने उन्हें पद से हटाने के लिए मतदान किया। 27 अप्रैल को अब्दुल हमीद के सौतेले भाई रेशाद एफेंदी को सुल्तान मेहमद पंचम घोषित किया गया।

सुल्तान का तख्तापलट, जिसने रूढ़िवादी इस्लामवादियों से यंग तुर्क के उदारवादी सुधारों के खिलाफ अपील की थी, के परिणामस्वरूप अदाना प्रांत में हजारों ईसाई अर्मेनियाई लोगों का नरसंहार हुआ, जिसे अदाना नरसंहार के रूप में जाना जाता है।

तख्तापलट के बाद

पूर्व सुल्तान को सैलोनिका (अब थेसालोनिकी) में कैद कर लिया गया था, ज्यादातर शहर के दक्षिणी बाहरी इलाके में विला अल्लातिनी में। 1912 में, जब सैलोनिका ग्रीस में गिर गया, तो उसे कॉन्स्टेंटिनोपल में कैद में लौटा दिया गया। उन्होंने अपने अंतिम दिन अपनी पत्नियों और बच्चों के साथ बोस्फोरस के बेलेरबेई पैलेस में हिरासत में पढ़ाई, बढ़ईगीरी का अभ्यास और अपने संस्मरण लिखने में बिताए, जहां 10 फरवरी 1918 को उनकी मृत्यु हो गई, उनके भाई सुल्तान मेहमद से कुछ महीने पहले। वी. उन्हें इस्तांबुल में दफनाया गया था।

1930 में, पांच साल तक चले मुकदमे के बाद, उनकी नौ विधवाओं और तेरह बच्चों को उनकी संपत्ति से 50 मिलियन अमेरिकी डॉलर दिए गए थे। उनकी संपत्ति का मूल्य 1.5 बिलियन अमेरिकी डॉलर था।

अब्दुल हामिद ऑटोमन साम्राज्य का अंतिम सुल्तान था जिसके पास पूर्ण सत्ता थी। उन्होंने 33 वर्षों तक पतन की अध्यक्षता की, जिसके दौरान अन्य यूरोपीय देशों ने साम्राज्य को "यूरोप का बीमार आदमी" माना।

व्यक्तिगत जीवन

इस्तांबुल में लीबिया के सूफी शेख मुहम्मद जफीर अल-मदानी की कब्र, जिन्होंने सुल्तान को शाधिली सूफी संप्रदाय में दीक्षित किया था

अब्दुल हामिद II एक कुशल बढ़ई था और उसने व्यक्तिगत रूप से कुछ उच्च गुणवत्ता वाले फर्नीचर तैयार किए थे, जिन्हें आज इस्तांबुल में येल्डिज़ पैलेस, सेल कोस्कु और बेलेरबेई पैलेस में देखा जा सकता है। उन्हें ओपेरा में भी रुचि थी और उन्होंने व्यक्तिगत रूप से कई ओपेरा क्लासिक्स का पहला ओटोमन तुर्की अनुवाद लिखा था। उन्होंने मिज़िका-यी हुमायूं (ओटोमन इंपीरियल बैंड/ऑर्केस्ट्रा, जिसे उनके दादा महमूद द्वितीय ने स्थापित किया था, जिन्होंने 1828 में डोनिज़ेट्टी पाशा को इसका प्रशिक्षक जनरल नियुक्त किया था) के लिए कई ओपेरा टुकड़ों की रचना की, और ओपेरा में यूरोप के प्रसिद्ध कलाकारों की मेजबानी की। येल्डिज़ पैलेस का घर, जिसे 1990 के दशक में बहाल किया गया था और 1999 की फिल्म हरेम सुआरे में दिखाया गया था (फिल्म अब्दुल हामिद द्वितीय के प्रदर्शन को देखने के दृश्य से शुरू होती है)। उनके मेहमानों में फ्रांसीसी मंच अभिनेत्री सारा बर्नहार्ट भी शामिल थीं जिन्होंने दर्शकों के लिए प्रस्तुति दी।[51]

वह यागली गुरेस के एक अच्छे पहलवान और पहलवानों के 'संरक्षक संत' भी थे। उन्होंने साम्राज्य में कुश्ती प्रतियोगिताओं का आयोजन किया और चयनित पहलवानों को महल में आमंत्रित किया। अब्दुल हमीद ने व्यक्तिगत रूप से खिलाड़ियों को परखा और अच्छे खिलाड़ी महल में ही रह गये। वह एक कुशल चित्रकार भी थे, जिन्होंने अपनी चौथी पत्नी बिदर कादीन का एकमात्र ज्ञात चित्र बनाया था। उन्हें शर्लक होम्स के उपन्यासों का बेहद शौक था और उन्होंने इसके लेखक सर आर्थर कॉनन डॉयल को 1907 में ऑर्डर ऑफ द मेडजिडी द्वितीय श्रेणी से सम्मानित किया।

धर्म

सुल्तान अब्दुल हामिद द्वितीय पारंपरिक इस्लामी सूफीवाद का अनुयायी था। वह लीबिया के शाधिली मदनी शेख, मुहम्मद ज़फीर अल-मदनी से प्रभावित थे, जिनके पाठ में वह सुल्तान बनने से पहले उंकापानी में भेष बदलकर भाग लेते थे। अब्दुल हामिद द्वितीय ने सिंहासन पर बैठने के बाद शेख अल-मदनी को इस्तांबुल लौटने के लिए कहा। शेख ने नई बनी येल्डिज़ हामिदिये मस्जिद में शाधिली स्मरण सभा (धिक्र) की शुरुआत की; गुरुवार की शाम को वह सूफ़ी गुरुओं के साथ धिक्कार का पाठ करते थे।[51] वह सुल्तान का करीबी धार्मिक और राजनीतिक विश्वासपात्र भी बन गया। 1879 में, सुल्तान ने खलीफा के सभी मदनी सूफी लॉज (जिन्हें ज़ाविया और टेककेस के नाम से भी जाना जाता है) के कर माफ कर दिए। 1888 में, उन्होंने इस्तांबुल में शाधिली सूफीवाद के मदनी आदेश के लिए एक सूफी लॉज की भी स्थापना की, जिसे उन्होंने एर्टुगरुल टेक्के मस्जिद के हिस्से के रूप में स्थापित किया। सुल्तान और शेख का रिश्ता 1903 में शेख की मृत्यु तक तीस वर्षों तक चला।

कविता

फ़ारसी भाषा और लिपियों में उनकी हस्तलिखित कविता का एक नमूना, जो उनकी बेटी आयसे सुल्तान द्वारा लिखित पुस्तक माई फादर अब्दुल हमीद से लिया गया था।

अब्दुल हमीद ने कई अन्य तुर्क सुल्तानों के नक्शेकदम पर चलते हुए कविता लिखी। उनकी एक कविता का अनुवाद इस प्रकार है:

मेरे भगवान, मैं जानता हूं कि आप सबसे प्रिय हैं (अल-अज़ीज़)

...और कोई नहीं, केवल आप ही प्रिय हैं

आप ही एक हैं, और कुछ नहीं

हे भगवान, इस कठिन समय में मेरा हाथ थामे

हे भगवान इस संकट की घड़ी में मेरा सहायक बने

छाप

एफ. ए. के. यासामी की राय में

वह दृढ़ संकल्प और डरपोक, अंतर्दृष्टि और कल्पना का एक अद्भुत मिश्रण थे, जो अत्यधिक व्यावहारिक सावधानी और शक्ति के मूल सिद्धांतों के लिए एक वृत्ति द्वारा एक साथ रखे गए थे। उन्हें अक्सर कमतर आंका जाता था. उनके रिकॉर्ड के आधार पर, वह एक दुर्जेय घरेलू राजनीतिज्ञ और एक प्रभावी राजनयिक थे।

परिवार

अब्दुलहमीद द्वितीय की कई पत्नियाँ थीं, लेकिन उसने अपनी स्पष्ट इच्छा से उनमें से किसी को भी राजनीतिक प्रभाव डालने की अनुमति नहीं दी; उसी तरह उन्होंने अपनी दत्तक मां, रहीमे पेरेस्तु सुल्तान, जिनके लिए उनके मन में अत्यंत सम्मान था, या अपने परिवार की अन्य महिला सदस्यों को इस तरह का प्रभाव डालने की अनुमति नहीं दी, हालांकि उनमें से कुछ के पास अभी भी निजी तौर पर कुछ हद तक शक्ति थी या हरम के दैनिक जीवन में। इसका कारण यह है कि अब्दुलहमीद को विश्वास था कि उसके पूर्ववर्तियों, विशेष रूप से उसके चाचा अब्दुलअज़ीज़ और उसके पिता अब्दुलमसीद प्रथम का शासन, राज्य के मामलों में शाही परिवार की महिलाओं के अत्यधिक हस्तक्षेप के कारण बर्बाद हो गया था। एकमात्र आंशिक अपवाद सेमाइल सुल्तान, उनकी सौतेली बहन और दत्तक बहन थीं।

पत्नियाँ

अब्दुलहमीद द्वितीय की कम से कम सोलह पत्नियाँ थीं:

  • नाज़ीकेदा कादीन (1848 - 11 अप्रैल 1895)। बास्कडिन (प्रथम पत्नी)। वह एक अब्खाज़ियन राजकुमारी थी, जिसका जन्म मेदिहा हनीम से हुआ था, जो कि सेमिले सुल्तान की प्रतीक्षारत महिला थी। अपनी इकलौती बेटी की दुखद मौत के कारण वर्षों तक गहरे अवसाद में रहने के बाद उनकी असामयिक मृत्यु हो गई।
  • सफ़ीनाज़ नुरेफ़सन कादीन (1850 - 1915)। उसका असली नाम आयसे था और वह अब्दुलमेसिड प्रथम की अंतिम पत्नी यिल्डिज़ हनीम की छोटी बहन थी। जब यिल्डिज़ हनीम ने अब्दुलमेसीद से शादी की, तो आयसे को शहजादे अब्दुलअज़ीज़ की सेवा में भेजा गया, जहाँ उसका नाम बदलकर सफ़ीनाज़ रखा गया। हारुन अकबा के अनुसार, अब्दुलअज़ीज़ उसकी सुंदरता पर मोहित हो गया था और उससे शादी करना चाहता था, लेकिन उसने इनकार कर दिया क्योंकि वह शहजादे अब्दुलहमीद (भविष्य के अब्दुलहमीद द्वितीय) से प्यार करती थी। भावना परस्पर थी और युवा राजकुमार ने अपनी सौतेली माँ रहीम पेरेस्तु कादिन से मदद मांगी। उसने अब्दुलअज़ीज़ को बताया कि सफ़ीनाज़ बीमार है और उसे हवा बदलने की ज़रूरत है; बाद में, अब्दुलअज़ीज़ को उसकी मृत्यु की सूचना दी गई। अब्दुलहमीद ने अक्टूबर 1868 में गुपचुप तरीके से सफीनाज़, जिसका नाम बदलकर नुरेफसन रखा गया, से शादी कर ली। हालाँकि, वह हरम में जीवन की आदी नहीं हो सकी थी और अब्दुलहमीद की एकमात्र पत्नी बनना चाहती थी। इसके बाद उन्होंने तलाक मांगा, जो उन्हें 1879 में दे दिया गया। उनकी कोई संतान नहीं थी।
  • बेड्रिफ़ेलेक कादीन (1851 - 1930)। जब रूस ने काकेशस पर आक्रमण किया तो सर्कसियन राजकुमारी ने इस्तांबुल में शरण ली। जब रहीम पेरेस्तु सुल्तान की मृत्यु हुई तो उसने अब्दुलहमीद द्वितीय के हरम पर शासन किया। जब अब्दुलहमीद को अपदस्थ कर दिया गया तो उसने उसे छोड़ दिया, शायद इस बात से निराश होकर कि उनके बेटे को उत्तराधिकारी के रूप में नहीं चुना गया था। उनके दो बेटे और एक बेटी थी.
  • बीदर कादीन (5 मई 1855 - 13 जनवरी 1918)। काबर्टियन राजकुमारी, वह अब्दुलहमीद द्वितीय की पत्नियों में सबसे सुंदर और आकर्षक मानी जाती थी। उनका एक बेटा और एक बेटी थी.
  • दिलपेसेंड कादीन (16 जनवरी 1865 - 17 जून 1901)।जॉर्जियाई। उनकी शिक्षा महमूद द्वितीय की अंतिम पत्नी तिरयाल हनीम ने की थी, जो अब्दुलहामिद द्वितीय के दादा थे। उसकी दो बेटियाँ थीं।
  • मेज़िदेमेस्तान कादीन (3 मार्च 1869 - 21 जनवरी 1909)। उनका जन्म काद्रिये कामिले मर्व हनीम के रूप में हुआ था, वह मेहमद VI की भावी पत्नी एमिन नाजीकेदा कादीन की चाची थीं। उसे सभी से प्यार था, जिसमें उसकी अन्य सहेलियाँ और उसके सौतेले बच्चे भी शामिल थे। वह उनकी सहचरियों में सबसे प्रभावशाली थीं, लेकिन उन्होंने कभी भी अपनी शक्ति का दुरुपयोग नहीं किया। उसका एक बेटा था, अब्दुलहमीद का पसंदीदा।
  • एम्सालिनुर कादीन (1866 - 1952)। उन्होंने अपनी बहन तेसरीद हनीम के साथ महल में प्रवेश किया, जो शहजादे इब्राहिम तेवफिक की पत्नी बनीं। वह बड़ी रूपवती थी। उसने निर्वासन में अब्दुलहमीद द्वितीय का अनुसरण नहीं किया और गरीबी में मर गई। उसकी एक बेटी थी.
  • डेस्टिज़र मुस्फ़िका कादीन (1872 - 18 जुलाई 1961)। वह अब्खाज़ियन थी, जिसका जन्म आयसे हनीम के रूप में हुआ था। वह अपनी बहन के साथ अब्दुलहामिद द्वितीय के चाचा, सुल्तान अब्दुलअज़ीज़ की माँ, पेरतेवनियाल सुल्तान के संरक्षण में पली-बढ़ी। वह निर्वासन में अब्दुलहमीद के साथ चली और उसकी मृत्यु तक उसके साथ रही, इतना कहा जाता है कि सुल्तान उसकी बाहों में मर गया। उसकी एक बेटी थी.
  • सज़कर हनीम (8 मई 1873 - 1945)। वह एक कुलीन अब्खाज़ियन थीं, जिनका जन्म फातमा ज़ेकिये हनीम के रूप में हुआ था। वह उन सहचरियों में से थीं, जिन्होंने निर्वासन में अब्दुलहमीद द्वितीय का अनुसरण किया और बाद में अपनी बेटी के साथ तुर्की छोड़ दिया। उसकी एक बेटी थी.
  • पेवेस्ट हनीम (1873 - 1943)। अब्खाज़ियन राजकुमारी, हेटिस राबिया हनीम और लेयला अकबा की चाची का जन्म। उसने पहले अपनी बहनों के साथ नाज़ीकेदा कादीन की सेवा की और फिर हरम की कोषाध्यक्ष बन गई। उनका बहुत सम्मान किया जाता था. वह अपने पति के साथ निर्वासन में चली गयी और फिर अपने बेटे के साथ। उसका एक बेटा था।
  • पेसेंड हनीम (13 फरवरी 1876 - 5 नवंबर 1924)। राजकुमारी फातमा कादरी अचबा का जन्म, वह उनकी पसंदीदा पत्नियों में से एक थी, जो अपनी दयालुता, दान और सहिष्णुता के लिए जानी जाती थी। वह उन पत्नियों में से एक थी जो अब्दुलहमीद द्वितीय की मृत्यु तक उसके साथ रहीं और उसकी मृत्यु पर, उसने शोक के संकेत के रूप में अपने बाल काट दिए और समुद्र में फेंक दिए। उसकी एक बेटी थी.
  • बेहिसे हनीम (10 अक्टूबर 1882 - 22 अक्टूबर 1969)। वह साज़कर हनीम की चचेरी बहन थी और उसका असली नाम बेहिये हनीम था। वह घमंडी और घमंडी थी, शुरुआत में उसे अब्दुलहामिद द्वितीय के बेटे शहजादे मेहमद बुरहानद्दीन से शादी करनी पड़ी, लेकिन अंत में सुल्तान ने खुद बेहिस की इच्छा के खिलाफ उससे शादी करने का फैसला किया। उसके दो जुड़वाँ बेटे थे।
  • सलीहा नसीये कादीन (1887 - 1923)। उनका जन्म ज़ेलिहा अंकुआप के रूप में हुआ था और उन्हें अतीके नासिये कादीन भी कहा जाता था। अपनी दयालुता और विनम्रता के लिए जानी जाने वाली, वह उनकी पसंदीदा थीं और उनकी सहेलियों में से एक थीं जो उनकी मृत्यु तक उनके साथ रहीं। उनका एक बेटा और एक बेटी थी.
  • डर्डेन हनीम (1867 - जनवरी 1957)।
  • कैलीबोस हनीम (1880 - ?)।
  • नाज़लियार हनीम

पुत्र

अब्दुलहमीद द्वितीय के कम से कम आठ बेटे थे:

  1. शहजादे मेहमद सेलिम (11 जनवरी 1870 - 5 मई 1937) - बेड्रिफ़ेलेक कादीन के साथ। उनकी अपने पिता से नहीं बनती थी. उनकी आठ पत्नियाँ, दो बेटे और एक बेटी थी।
  2. शहजादे मेहमद अब्दुलकादिर (16 जनवरी 1878 - 16 मार्च 1944) - बीदर कादीन के साथ। उनकी सात पत्नियाँ, पाँच बेटे और दो बेटियाँ थीं।
  3. शहजादे अहमद नूरी (12 फरवरी 1878 - 7 अगस्त 1944) - बेड्रिफ़ेलेक कादीन के साथ। उनकी एक पत्नी थी लेकिन कोई संतान नहीं थी।
  4. शहजादे मेहमेद बुरहानदीन (19 दिसंबर 1885 - 15 जून 1949) - मेज़िदेमेस्तान कादीन के साथ। उनकी चार पत्नियाँ और दो बेटे थे।
  5. शहजादे अब्दुर्रहीम हयारी (15 अगस्त 1894 - 1 जनवरी 1952) - पेवेस्ट हनीम के साथ। उनकी दो पत्नियाँ थीं, एक बेटा और एक बेटी।
  6. शहजादे अहमद नुरेद्दीन (22 जून, 1901 - दिसंबर 1944) - बेहिसे हनीम के साथ। शहजादे मेहमद बेड्रेडिन के जुड़वां। उनकी एक पत्नी और एक बेटा था।
  7. शहजादे मेहमेद बेडरेद्दीन (22 जून 1901 - 13 अक्टूबर 1903) - बेहिसे हनीम के साथ। शहजादे अहमद नुरेद्दीन के जुड़वां। येल्डिज़ पैलेस में पैदा हुए। उनकी मृत्यु मेनिनजाइटिस से हुई और उन्हें याह्या एफेंदी कब्रिस्तान में दफनाया गया।
  8. शहजादे मेहमद आबिद (17 मई, 1905 - 8 दिसंबर, 1973) - सलीहा नसीये कादीन के साथ। उनकी दो पत्नियाँ थीं लेकिन कोई संतान नहीं थी।

पुत्री

अब्दुलहमीद द्वितीय की कम से कम 13 बेटियाँ थीं:[63][59]

  1. उलविए सुल्तान (1868 - 5 अक्टूबर 1875) - नाज़ीकेदा कादीन के साथ। डोलमाबाहस पैलेस में जन्मी, सात साल की उम्र में बेहद दुखद तरीके से उनकी मृत्यु हो गई: जब उनकी मां पियानो बजाती थीं और उनके नौकरों को भोजन के लिए छुट्टी दे दी जाती थी, उल्विये सुल्तान ने माचिस या मोमबत्तियों के साथ खेलना शुरू कर दिया। उसकी पोशाक में आग लग गई और उसकी सोने की बेल्ट ने उसे उसमें फँसा दिया, हालाँकि उसकी माँ ने उसे खोलने की कोशिश में अपने हाथ जला लिए। घबराहट में, नाजीकेदा ने अपनी बेटी को उठाया और मदद के लिए चिल्लाते हुए सीढ़ियों से नीचे भागी, लेकिन इस हरकत ने आग की लपटों को और भड़का दिया और उलविए सुल्तान की जिंदा जलकर मौत हो गई, जिससे उसकी मां पूरी तरह से निराश हो गई, जिससे वह कभी उबर नहीं पाई। उसे येनी कैमी में दफनाया गया था।
  2. ज़ेकिये सुल्तान (12 जनवरी 1872 - 13 जुलाई 1950) - बेड्रिफ़ेलेक कादीन के साथ। उसने एक बार शादी की और उसकी दो बेटियाँ थीं। वह अब्दुलहमीद की पसंदीदा बेटियों में से एक थी।
  3. फातमा नईम सुल्तान (5 सितंबर 1876 - 1945) - बीदर कादीन के साथ। वह अब्दुलहमीद द्वितीय की पसंदीदा बेटी है, जो उसे "मेरी परिग्रहण बेटी" कहता था, क्योंकि वह उसके सिंहासन पर बैठने की तारीख के करीब पैदा हुई थी। उसने दो बार शादी की और उसका एक बेटा और एक बेटी है। 1904 में वह एक घोटाले में फंस गईं जब उन्हें पता चला कि उनका पहला पति उनके चचेरे भाई मुराद वी की बेटी हैटिस सुल्तान के साथ उन्हें धोखा दे रहा था।
  4. नेल सुल्तान (9 फरवरी 1884 - 25 अक्टूबर 1957) - दिलपेसेंड कादीन के साथ। उसने एक बार शादी की, उसके कोई संतान नहीं थी।
  5. सेनिये सुल्तान (1884 - 1884) - अज्ञात मातृत्व।
  6. सेनिहा सुल्तान (1885 - 1885) - दिलपेसेंड कादीन के साथ। पाँच महीने की उम्र में उसकी मृत्यु हो गई।
  7. सादिये सुल्तान (30 नवंबर 1886 - 20 नवंबर 1977) - एम्सालिनूर कादीन के साथ। उसने दो बार शादी की और उसकी एक बेटी थी।
  8. हामिदे आयसे सुल्तान (15 नवंबर 1887 - 10 अगस्त 1960) - मुस्फिका कादीन के साथ। उसकी दो बार शादी हुई थी और उसके तीन बेटे और एक बेटी थी।
  9. रेफ़िया सुल्तान (15 जून 1891 - 1938) - साज़कर हनीम के साथ। उसने एक बार शादी की और उसकी दो बेटियाँ थीं।
  10. हैटिस सुल्तान (10 जुलाई 1897 - 14 फरवरी 1898) - पेसेंड हनीम के साथ। उनकी चेचक से मृत्यु हो गई, उन्हें याह्या एफेंदी कब्रिस्तान में दफनाया गया।
  11. अलीये सुल्तान (1900 - 1900) - अज्ञात मातृत्व। उनके जन्म के कुछ दिन बाद ही उनकी मृत्यु हो गई।
  12. सेमिला सुल्तान (1900 - 1900) - अज्ञात प्रसूता। उनके जन्म के कुछ दिन बाद ही उनकी मृत्यु हो गई।
  13. सामीये सुल्तान (16 जनवरी 1908 - 24 जनवरी 1909) - सलीहा नसीये कादीन के साथ। निमोनिया से उनकी मृत्यु हो गई, उन्हें याह्या एफेंदी कब्रिस्तान में शहजादे अहमद केमलेद्दीन के मकबरे में दफनाया गया।

लोकप्रिय संस्कृति

  • अब्दुल द डैम्ड (1935) सुल्तान के जीवन के अंत के निकट के समय को चित्रित करता है।
  • बैरी अन्सवर्थ का ऐतिहासिक उपन्यास द रेज ऑफ द वल्चर (1982) अब्दुल हामिद की सल्तनत के अंतिम क्षणों (मई 1908 के बाद) के व्यामोह को चित्रित करता है।
  • पायइताहत अब्दुलहामिद, जिसे अंग्रेजी में 'द लास्ट एम्परर' नाम दिया गया है, एक तुर्की लोकप्रिय ऐतिहासिक टेलीविजन नाटक श्रृंखला है जिसमें अब्दुल हमीद द्वितीय के शासनकाल के अंतिम 13 वर्षों को दर्शाया गया है।
  • डॉन रोजा की कॉमिक बुक कहानी "द ट्रेजरी ऑफ क्रॉसस" में, स्क्रूज मैकडक ने एक परमिट वापस ले लिया, जिस पर अब्दुल हामिद द्वितीय ने 1905 में हस्ताक्षर किए थे, जिससे मैकडक कार्टे ब्लैंच को इफिसस के प्राचीन खंडहरों की खुदाई करने की अनुमति मिल गई थी।

पुरस्कार और सम्मान

तुर्क आदेश

  1.   क्रिसेंट के आदेश के ग्रैंड मास्टर
  2.   ऑर्डर ऑफ ग्लोरी के ग्रैंड मास्टर
  3.   मेडजिडी के आदेश के ग्रैंड मास्टर
  4.   उस्मानियाह के आदेश के ग्रैंड मास्टर

विदेशी पुरस्कार और सम्मान

  1.   नाइट ग्रैंड क्रॉस ऑफ़ द ऑर्डर ऑफ़ सेंट स्टीफ़न, डायमंड्स में, 1881 (ऑस्ट्रिया-हंगरी)
  2.   नाइट ऑफ़ द ऑर्डर ऑफ़ द एलिफ़ैंट, 13 दिसंबर 1884 (डेनमार्क साम्राज्य)
  3.   नाइट ऑफ द ऑर्डर ऑफ सेराफिम, डायमंड्स में, 24 जुलाई 1879 (स्वीडन साम्राज्य)
  4.   नाइट ग्रैंड क्रॉस ऑफ़ द ऑर्डर ऑफ़ कामेहामेहा I, जुलाई 1881 (हवाई साम्राज्य)
  5.   नाइट ग्रैंड क्रॉस ऑफ़ द ऑर्डर ऑफ़ सेंट ओलाव, 11 फ़रवरी 1885 (नॉर्वे साम्राज्य)
  6.   नाइट ग्रैंड क्रॉस ऑफ़ द ऑर्डर ऑफ़ द टावर एंड स्वोर्ड (पुर्तगाल साम्राज्य)
  7.   नाइट ऑफ़ द ऑर्डर ऑफ़ द गोल्डन फ़्लीस, 19 दिसंबर 1880 (स्पेन साम्राज्य)
  8.   नाइट ग्रैंड क्रॉस ऑफ़ द ऑर्डर ऑफ़ द व्हाइट फाल्कन, 1891 (ग्रैंड डची ऑफ़ सक्से-वीमर-आइसेनच)
  9. नाइट ग्रैंड क्रॉस विद कॉलर ऑफ़ द ऑर्डर ऑफ़ सेंट अलेक्जेंडर, 1897 (बुल्गारिया की रियासत)
  10.   कॉलर ऑफ़ द ऑर्डर ऑफ़ कैरोल I के साथ नाइट ग्रैंड क्रॉस, 1907 (रोमानिया साम्राज्य)
  11.   नाइट ऑफ़ द ऑर्डर ऑफ़ द एनाउंसमेंट, 29 नवंबर 1881 (इटली साम्राज्य)
  12.   नाइट ऑफ़ द ऑर्डर ऑफ़ द ब्लैक ईगल, डायमंड्स में, 3 फ़रवरी 1882 (जर्मन साम्राज्य)
  13.   नाइट ऑफ़ द ऑर्डर ऑफ़ द रॉयल हाउस ऑफ़ चकरी, 18 दिसंबर 1892 (सियाम साम्राज्य)
  14.   नाइट ग्रैंड कॉर्डन ऑफ़ द ऑर्डर ऑफ़ द क्रिसेंथेमम, 26 जून 1888 (जापान का साम्राज्य)
  15.   नाइट ऑफ़ द ऑर्डर ऑफ़ सेंट ह्यूबर्ट, 1908 (बवेरिया साम्राज्य)

सन्दर्भ

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  1. "Abdulhamid II". Encyclopedia Britannica (15th) I: A-ak Bayes: 22। (2010)। Chicago, IL: Encyclopedia Britannica Inc.।
  2. Some sources state that his birth date was on 22 September.
  3. Overy, Richard pp. 252, 253 (2010)
  4. "Abdulhamid II | biography - Ottoman sultan". मूल से 28 जुलाई 2018 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 2015-09-29.
  5. "Sultan beaten, capital falls, 6,000 are slain". The New York Times. 25 April 1909. मूल से 12 जून 2018 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 22 अक्तूबर 2018.
  6. Vahan Hamamdjian (2004). Vahan's Triumph: Autobiography of an Adolescent Survivor of the Armenian Genocide. iUniverse. पृ॰ 11. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-0-595-29381-0. मूल से 10 जून 2016 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 22 अक्तूबर 2018.
  7. Razmik Panossian (13 August 2013). The Armenians: From Kings and Priests to Merchants and Commissars. Columbia University Press. पृ॰ 165. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-0-231-13926-7. मूल से 15 मई 2016 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 22 अक्तूबर 2018.