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टिड्डी

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मरुस्थलीय टिड्डियाँ

टिड्डी (Locust) ऐक्रिडाइइडी (Acridiide) परिवार के ऑर्थाप्टेरा (Orthoptera) गण का कीट है। हेमिप्टेरा (Hemiptera) गण के सिकेडा (Cicada) वंश का कीट भी टिड्डी या फसल डिड्डी (Harvest Locust) कहलाता है। इसे लधुश्रृंगीय टिड्डा (Short Horned Grasshopper) भी कहते हैं। संपूर्ण संसार में इसकी केवल छह जातियाँ पाई जाती हैं। यह प्रवासी कीट है और इसकी उड़ान दो हजार मील तक पाई गई है।

जातियाँ

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प्रवासी टिड्डियों की निम्नलिखित प्रमुख जातियाँ हैं :

1. उत्तरी अमरीका की रॉकी पर्वत की टिड्डी

2. स्किस टोसरका ग्रिग्ररिया (Schistocerca gregaria) नामक मरुभूमीय टिड्डी,

3. दक्षिण अफ्रीका की भूरी एवं लाल लोकस्टान पारडालिना (Locustana pardalina) तथा नौमेडैक्रिस सेंप्टेमफैसिऐटा (Nomadacris semptemfaciata),

4. साउथ अमरीकाना (South Americana) और

5. इटालीय तथा मोरोक्को टिड्डी। इनमें से अधिकांश अफ्रीका, वेस्ट इंडीज, उष्ण कटिबंधीय आस्ट्रेलिया, यूरेशियाई टाइगा जंगल के दक्षिण के घास के मैदान तथा न्यूजीलैंड में पाई जाती हैं।

मादा टिड्डी मिट्टी में कोष्ठ (cells) बनाकर, प्रत्येक कोष्ठ में 20 से लेकर 100 अंडे तक रखती है। गरम जलवायु में 10 से लेकर 20 दिन तक में अंडे फूट जाते हैं, लेकिन उत्तरी अक्षांश के स्थानों में अंडे जाड़े भर प्रसुप्त रहते हैं। शिशु टिड्डी के पंख नहीं होते तथा अन्य बातों में यह वयस्क टिड्डी के समान होती है। शिशु टिड्डी का भोजन वनस्पति है और ये पाँच छह सप्ताह में वयस्क हो जाती है। इस अवधि में चार से छह बार तक इसकी त्वचा बदलती है। वयस्क टिड्डियों में 10 से लेकर 30 दिनों तक में प्रौढ़ता आ जाती है और तब वे अंडे देती हैं। कुछ जातियों में यह काम कई महीनों में होता है। टिड्डी का विकास आर्द्रता ओर ताप पर अत्यधिक निर्भर करता है। टिड्डी के वृत्तखंडधारी पैरों के तीन जोड़ों में से सबसे पिछला जोड़ा अधिक परिवर्धित होता है। ये दो पैर सबसे लंबे और मजबूत होते हैं। कठोर, संकुचित पंख संम्पुटों के नीचे चौड़े पंख होते हैं। टिड्डियों की दो अवस्थाएँ होती हैं, 1. इकचारी तथा 2. यूथचारी। प्रत्येक अवस्था में ये रंजन, आकृति, कायकी (Physiology) और व्यवहार में एक दूसरे से भिन्न होती हैं। एकचारी के निंफ (nymph) का रंग और प्रतिरूप परिवर्तित होता रहता है। यह अपने पर्यावरण के अनुकूल अपने रंग का समायोजन कर सकता है। इसका उपापचय और ऑक्सीजन लेने की दर मंद होती है। यूथचारी के निंफ का रंग काला, पीला और प्रतिरूप निश्चित होता है। इसका उपापचय तथा ऑक्सीजन लेने की दर ऊँची होती है। यह अधीर (nervous), सक्रिय और संवेदनशील होता है। इसका ताप भी ऊँचा होता है, क्योंकि इसका काला रंग अधिक विकिरण को अवशोषित करता है। एकचारी के पंख छोटे, पैर लंबे, प्रोनोटम (pronotum) संकीर्ण, शिखा ऊँची तथा सिर बड़ा होता है। यूथचारी का कंधा चौड़ा, पंख लंबे तथा प्रोनोटम जीन की आकृति का होता है। इनकी यूथ में रहने की मूल प्रवृत्ति बड़ी दृढ़ होती है। मृत्युदर अधिक हो जाने पर भी समूह घनीभूत रहता है। तूफान के कारण इनके यूथ भंग हो जाते हैं।

एकचारी टिड्डी की संतति झुंड में पलने पर यूथचारी किस्म में परिवर्तित हो जाती है। यदि यूथ अधिक संख्यावाला और दीर्घकालीन होता है, तो उसमें पलनेवाले एकचारी टिड्डी के बच्चे चरम यूथचारी तथा प्रवासी होते हैं। यूथचारी टिड्डी की संतति एकांत में पलती है और एकचारी में परिवर्तित हो जाती है। एकचारी अवस्था इस जाति की स्वाभाविक अवस्था है। जिस क्षेत्र में यह जाति पाई जाती है वहाँ एकचारी अवस्था का अस्तित्व रहता है।

इनके निवासस्थान उन स्थानों पर बनते हैं जहाँ जलवायु असंतुलित होता है और निवास के स्थान सीमित होते हैं। इन स्थानों पर रहने से अनुकूल ऋतु इनकी सीमित संख्या को संलग्न क्षेत्रों में फैलाने में सहायक होती है। प्रवासी टिड्डी के उद्भेद (outbreak) स्थल चार प्रकार के होते हैं:

1. कैस्पियन सागर, ऐरेल सागर तथा बालकश झील में गिरनेवाली नदियों के बालू से घिरे डेल्टा,

2. मरूभूमि से संलग्न घास के मैदान, जहाँ वर्षण में बहुत अधिक विषमता रहती है, जिसके कारण टिड्डियों के निवासस्थान में परिवर्तन होते रहते हैं;

3. मध्य रूस के शुष्क तथा गरम मिट्टी वाले द्वीप, जो टिड्डी के लिए नम और अत्यधिक ठंडे रहते हैं। इस क्षेत्र में तभी बहुत संख्या में टिड्डियाँ एकत्र होती हैं जब अधिक गर्मी पड़ती है तथा

4. फिलिपीन के अनुपयुक्त, आर्द्र तथा उष्ण कटिबंधीय जंगलों को समय समय पर जलाने से बने घास के मैदान।

वयस्क यूथचारी टिड्डियाँ गरम दिनों में झुंडों में उड़ा करती हैं। उड़ने के कारण पेशियाँ सक्रिय होती हैं, जिससे उनके शरीर का ताप बढ़ जाता है। वर्षा तथा जाड़े के दिनों में इनकी उड़ानें बंद रहती हैं। मरुभूमि टिड्डियों के झुंड, ग्रीष्म मानसून के समय, अफ्रीका से भारत आते हैं और पतझड़ के समय ईरान और अरब देशों की ओर चले जाते हैं। इसके बाद ये सोवियत एशिया, सिरिया, मिस्र और इजरायल में फैल जाते हैं। इनमें से कुछ भारत और अफ्रीका लौट आते हें, जहाँ दूसरी मानसूनी वर्ष के समय प्रजनन होता है।

लोकस्टा माइग्रेटोरिया (Locusta Migratoria) नामक यह टिड्डी एशिया तथा अफ्रीका के देशों में फसल तथा वनस्पति का नाश कर देती है।

टिड्डी नियंत्रण

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टिड्डियों का उपद्रव आरंभ हो जाने के पश्चात् इसे नियंत्रित करना कठिन हो जाता है। इसपर नियंत्रण पाने के लिए हवाई जहाज से विषैली ओषधियों का छिड़काव, विषैला चारा, जैसे बेंजीन हेक्साक्लोराइड के विलयन में भीगी हुई गेहूँ की भूसी का फैलाव इत्यादि, उपयोगी होता है। अंडों को नष्ट करना और पहियों पर चौखटों में पढ़ाए पर्दों (Hopperdozers) के उपयोग से, टिड्डियों को पानी और मिट्टी के तेल से भरी नाद में गिराकर नष्ट करना अन्य उपाय हैं, पर ये उपाय अत्यधिक खर्चीला हैं। अत: अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर ही इनका आयोजन हो सकता हैं।


कृषि में महत्व

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टिड्डा वैसे तो किसानों की फसलों को नुकसान पहुंचाता है परंतु मानवीय भोजन को सुरक्षित रखने की दृष्टि से इस को नियंत्रित करना आवश्यक है फिर भी प्रकृति में यह कीट नहीं होता तो पारिस्थितिकी तंत्र एक अलग तरह का होता। अत्यधिक भोजन करने के कारण मल त्याग भी अत्यधिक करता है एवं इसके मल को सूक्ष्म जीव गोबर की खाद की तुलना में ज्यादा कुशलता से मृदा की उर्वरता को बढ़ाते हैं एवं उसकी मृत्यु होने पर इसके शरीर की नाइट्रोजन को सूक्ष्म जीव आसानी से मृदा की उर्वरता को बढ़ाने में सहायक होते हैं जिससे पौधों का अच्छा विकास होता है। पारिस्थितिकी तंत्र में यह परभक्षियों के लिए भोजन के रूप में मुख्य भूमिका निभाता है। पक्षियों के द्वारा इसे भोजन के रूप में खाया जाता है जिससे वह स्वस्थ रहकर परिस्थितिकी तंत्र को बनाए रखते हैं यह प्रकृति की हरियाली का 10% सेवन करता है जिससे पौधों की अवांछित वृद्धि नहीं हो पाती है। कुछ देशों में टिड्डे को भोजन के रूप में खाया जाता है मेक्सिको में चापूलाईन नाम से इसके अनेक व्यंजन बनते हैं जिसके अंतर्गत टोरटिलस प्रमुख व्यंजन है, जिसे मिर्ची साॅस के साथ खाया जाता है। टिड्डी

टिड्डा
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बाहरी कड़ियाँ

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