रंगभेद नीति
दक्षिण अफ्रीका में नेशनल पार्टी की सरकार द्वारा सन् 1948 में विधान बनाकर काले और गोरों लोगों को अलग निवास करने की प्रणाली लागू की गयी थी। इसे ही रंगभेद नीति या आपार्थैट (Apartheid) कहते हैं। अफ्रीका की भाषा में "अपार्थीड" का शाब्दिक अर्थ है - अलगाव या पृथकता। यह नीति सन् 1994 में समाप्त कर दी गयी। इसके विरुद्ध नेल्सन मंडेला ने बहुत संघर्ष किया, जिसके लिए उन्हें लम्बे समय तक जेल में रखा गया
परिचय
[संपादित करें]दक्षिण अफ़्रीका में रहने वाले डच मूल के श्वेत नागरिकों की भाषा अफ़्रीकांस में 'एपार्थाइड' का शाब्दिक अर्थ है, पार्थक्य या अलहदापन। यही अभिव्यक्ति कुख्यात रंगभेदी अर्थों में 1948 के बाद उस समय इस्तेमाल की जाने लगी जब दक्षिण अफ़्रीका में हुए चुनावों में वहाँ की नैशनल पार्टी ने जीत हासिल की और प्रधानमंत्री डी.एफ़. मलन के नेतृत्व में कालों के ख़िलाफ़ और श्वेतांगों के पक्ष में रंगभेदी नीतियों को कानूनी और संस्थागत जामा पहना दिया गया। नैशनल पार्टी अफ़्रीकानेर समूहों और गुटों का एक गठजोड़ थी जिसका मकसद गोरों की नस्ली श्रेष्ठता के दम्भ पर आधारित नस्ली भेदभाव के कार्यक्रम पर अमल करना था। मलन द्वारा चुनाव के दौरान दिये गये नारे ने ही एपार्थाइड को रंगभेदी अर्थ प्रदान किये। रंगभेद के दार्शनिक और वैचारिक पक्षों के सूत्रीकरण की भूमिका बोअर (डच मूल) राष्ट्रवादी चिंतक हेनरिक वरवोर्ड ने निभायी। इसके बाद रंगभेद अगली आधी सदी तक दक्षिण अफ़्रीका के राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक जीवन पर छा गया। उसने अंतर्राष्ट्रीय संबंधों को भी प्रभावित किया। नब्बे के दशक में अफ़्रीकन नैशनल कांग्रेस और नेलसन मंडेला के नेतृत्व में बहुसंख्यक अश्वेतों का लोकतांत्रिक शासन स्थापित होने के साथ ही रंगभेद का अंत हो गया।
दक्षिण अफ़्रीका के संदर्भ में नस्ली भेदभाव का इतिहास बहुत पुराना है। इसकी शुरुआत डच उपनिवेशवादियों द्वारा कैप टाउन को अपने रिफ्रेशमेंट स्टेशन के रूप में स्थापित करने से मानी जाती है। एशिया में उपनिवेश कायम करने के लिए डच उपनिवेशवादी इसी रास्ते से जाते थे। इसी दौरान इस क्षेत्र की अफ़्रीकी आबादी के बीच रहने वाले युरोपियनों ने ख़ुद को काले अफ़्रीकियों के हुक्मरानों की तरह देखना शुरू किया। शासकों और शासितों के बीच श्रेष्ठता और निम्नता का भेद करने के लिए कालों को युरोपियनों से हाथ भर दूर रखने का आग्रह पनपना ज़रूरी था। परिस्थिति का विरोधाभास यह था कि गोरे युरोपियन मालिकों के जीवन में कालों की अंतरंग उपस्थिति भी थी। इसी अंतरंगता के परिणामस्वरूप एक मिली-जुली नस्ल की रचना हुई जो ‘अश्वेत’ कहलाए।
हालाँकि रंगभेदी कानून 1948 में बना, पर दक्षिण अफ़्रीका की गोरी सरकारें कालों के ख़िलाफ़ भेदभावपूर्ण रवैया अपनाना जारी रखे हुए थीं। कुल आबादी के तीन-चौथाई काले थे और अर्थव्यवस्था उन्हीं के श्रम पर आधारित थी। लेकिन सारी सुविधाएँ मुट्ठी भर गोरे श्रमिकों को मिलती थीं। सत्तर फ़ीसदी ज़मीन भी गोरों के कब्ज़े के लिए सुरक्षित थी। इस भेदभाव ने उन्नीसवीं सदी में एक नया रूप ग्रहण कर लिया जब दक्षिण अफ़्रीका में सोने और हीरों के भण्डार होने की जानकारी मिली। ब्रिटिश और डच उपनिवेशवादियों के सामने स्पष्ट हो गया कि दक्षिण अफ़्रीका की ख़ानों पर कब्ज़ा करना कितना ज़रूरी है। सामाजिक और आर्थिक संघर्ष की व्याख्या आर्थिक पहलुओं की रोशनी में की जाने लगी। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध की दक्षिण अफ़्रीकी राजनीति का मुख्य संदर्भ यही था।
इसी दौर में ब्रिटेन ने अफ़्रीका महाद्वीप के दक्षिणी हिस्से में डच मूल के बोअर गणराज्यों के साथ महासंघ बनाने की विफल कोशिश की। इसके बाद दक्षिण अफ़्रीकी गणराज्य के मुकाबले अंग्रेज़ों को अपने पहले युद्ध में पराजय नसीब हुई। विटवाटर्सरेंड में जर्मन और ब्रिटिश पूँजी द्वारा संयुक्त रूप से किये जाने वाले सोने के खनन ने स्थिति को और गम्भीर कर दिया। ये पूँजीपति गणराज्य के राष्ट्रपति पॉल क्रूगर की नीतियों के दायरे में काम करने के लिए तैयार नहीं थे। उन्हें खनन में इस्तेमाल किये जाने वाले डायनामाइट पर टैक्स देना पड़ता था। क्रूगर का यह भी मानना था कि इन विदेशी ख़ान मालिकों और उनके खनिज कैम्पों के प्रदूषण से बोअर समाज को बचाया जाना चाहिए। उधर खनन में निवेश करने वाले और कैप कॉलोनी के प्रधानमंत्री रह चुके सेसिल रोड्स और उनके सहयोगियों का मकसद ब्रिटिश प्रभाव का विस्तार करना था। इस प्रतियोगिता के गर्भ से जो युद्ध निकला उसे बोअर वार के नाम से जाना जाता है। 1899 से 1902 तक जारी रहे इस युद्ध के दोनों पक्ष रंगभेद समर्थक युरोपियन थे, लेकिन दोनों पक्षों की तोपों में चारे की तरह काले सिपाहियों को भरा जा रहा था। कालों और उनके राजनीतिक नेतृत्व को उम्मीद थी कि बोअर युद्ध का परिणाम उनके लिए राजनीतिक रियायतों में निकलेगा। पर ऐसा नहीं हुआ। अंग्रेज़ों और डचों ने बाद में आपस में संधि कर ली और मिल-जुल कर रंगभेदी शासन को कायम रखा।
1911 तक ब्रिटिश उपनिवेशवाद दक्षिण अफ़्रीका में पूरी तरह पराजित हो गया, लेकिन कालों को कोई इंसाफ़ नहीं मिला। 1912 में साउथ अफ़्रीकन यूनियन के गठन की प्रतिक्रिया में अफ़्रीकी नैशनल कांग्रेस (एएनसी) की स्थापना हुई जिसका मकसद उदारतावाद, बहुसांस्कृतिकता और अहिंसा के उसूलों के आधार पर कालों की मुक्ति का संघर्ष चलाना था। मध्यवर्गीय पढ़े-लिखे कालों के हाथ में इस संगठन की बागडोर थी। इसे शुरू में कोई ख़ास लोकप्रियता नहीं मिली, पर चालीस के दशक में इसका आधार विस्तृत होना शुरू हुआ। एएनसी ने 1943 में अपनी युवा शाखा बनायी जिसका नेतृत्व नेलसन मंडेला और ओलिवल टाम्बो को मिला। यूथ लीग ने रैडिकल जन-कार्रवाई का कार्यक्रम लेते हुए वामपंथी रुझान अख्तियार किया।
1948 में बने रंगभेदी कानून के पीछे समाजशास्त्र के प्रोफ़ेसर, सम्पादक और बोअर राष्ट्रवादी बुद्धिजीवी हेनरिक वरवोर्ड का दिमाग़ काम कर रहा था। वरवोर्ड अपना चुनाव हार चुके थे, पर उनकी बौद्धिक क्षमताओं का लाभ उठाने के लिए मलन ने उनके कंधों पर एक के बाद एक कई सरकारी ज़िम्मेदारियाँ डालीं। वरवोर्ड ने ही वह कानूनी ढाँचा तैयार किया जिसके आधार पर रंगभेदी राज्य का शीराज़ा खड़ा हुआ। इनमें सबसे ज़्यादा कुख्यात कानून अफ़्रीकी जनता के आवागमन पर पाबंदियाँ लगाने वाले थे। 1948 में रंगभेद के साथ प्रतिबद्ध नैशनल पार्टी के सत्तारूढ़ होने के साथ ही एएनसी ने इण्डियन कांग्रेस, कलर्ड पीपुल्स कांग्रेस और व्हाइट कांग्रेस ऑफ़ डैमोक्रेट्स के साथ गठजोड़ कर लिया। श्वेतों के इस समूह पर दक्षिण अफ़्रीकी कम्युनिस्ट पार्टी का प्रभाव था जिसे सरकार ने प्रतिबंधित कर रखा था। 1955 में एएनसी ने फ़्रीडम चार्टर पारित किया जिसमें सर्वसमावेशी राष्ट्रवाद के प्रति प्रतिबद्धता जारी की गयी। वरवोर्ड द्वारा तैयार किया गया एक और प्रावधान था 1953 का बानटू एजुकेशन एक्ट जिसके तहत अफ़्रीकी जनता की शिक्षा पूरी तरह से वरवोर्ड के हाथों में चली गयी। इसी के बाद से अफ़्रीकी शिक्षा प्रणाली रंगभेदी शासन के ख़िलाफ़ प्रतिरोध का केंद्र बनती चली गयी।
साठ के दशक में रंगभेदी सरकार ने अपना विरोध करने वाली राजनीतिक शक्तियों को प्रतिबंधित कर दिया, उनके नेता या तो गिरक्रतार कर लिए गये या उन्हें जलावतन कर दिया गया। सत्तर के दशक में श्वेतों के बीच काम कर रहे उदारतावादियों ने भी रंगभेद के ख़िलाफ़ मोर्चा सँभाला और युवा अफ़्रीकियों ने काली चेतना को बुलंद करने वाली विचारधारा के पक्ष में रुझान प्रदर्शित करने शुरू कर दिये। 1976 के सोवेतो विद्रोह से इन प्रवृत्तियों को और बल मिला। इसी दशक में अफ़्रीका के दक्षिणी हिस्सों में गोरी हुकूमतों का पतन शुरू हुआ। धीरे-धीरे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी दक्षिण अफ़्रीका की गोरी हुकूमत के साथ हमदर्दी रखने वालों को समझ में आने लगा कि रगंभेद को बहुत दिनों तक टिकाये रखना मुमकिन नहीं है। अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबंधों का सिलसिला शुरू हुआ जिससे गोरी सरकार अलग-थलग पड़ती चली गयी। 1979 तक मजबूर हो कर उसे ब्लैक ट्रेड यूनियन को मान्यता देनी पड़ी और कालों के साथ किये जाने वाले छोटे- मोटे भेदभाव भी ख़त्म कर दिये गये। इससे एक साल पहले ही वरवोर्ड के राजनीतिक उत्तराधिकारी प्रधानमंत्री पी.डब्ल्यू. बोथा ने एक अभिव्यक्ति के रूप में ‘एपार्थाइड’ से पल्ला झाड़ लिया था।
1984 में हुए संवैधानिक सुधारों में जब बहुसंख्यक कालों को कोई जगह नहीं मिली तो बड़े पैमाने पर असंतोष फैला। दोनों पक्षों की तरफ़ से ज़बरदस्त हिंसा हुई। सरकार को आपातकाल लगाना पड़ा। अंतर्राष्ट्रीय समुदाय ने उस पर और प्रतिबंध लगाए। शीत युद्ध के खात्मे और नामीबिया की आज़ादी के बाद रंगभेदी सरकार पर पड़ने वाला दबाव असहनीय हो गया। गोरे मतदाता भी अब पूरी तरह से उसके साथ नहीं थे। डच मूल वाला कट्टर राष्ट्रवादी बोअर अफ़्रीकानेर समुदाय भी वर्गीय विभाजनों के कारण अपनी पहले जैसी एकता खो चुका था। नैशनल पार्टी के भीतर दक्षिणपंथियों को अपेक्षाकृत उदार एफ़.डब्ल्यू. डि क्लार्क के लिए जगह छोड़नी पड़ी। क्लार्क ने नेलसन मंडेला और उनके साथियों को जेल से छोड़ा, राजनीतिक संगठनों से प्रतिबंध उठाया और 1992 तक रंगभेदी कानून ख़त्म कर दिये गये। बहुसंख्यक कालों को मताधिकार मिला। एएनसी अपना रैडिकल संघर्ष (जिसमें हथियारबंद लड़ाई भी शामिल थी) ख़त्म करने पर राजी हो गयी। सरकार और उसके बीच हुए समझौते के तहत 1994 में चुनाव हुआ जिसमें ज़बरदस्त जीत हासिल करके एएनसी ने सत्ता सँभाली और नेलसन मंडेला रंगभेद विहीन दक्षिण अफ़्रीका के पहले राष्ट्रपति बने।
सन्दर्भ
[संपादित करें]1. हरमन गिलिओमी और लारेंस श्लेमर (1989), फ़्रॉम एपार्थाइड टु नेशन बिलि्ंडग, ऑक्सफ़र्ड युनिवर्सिटी प्रेस, कैपटाउन.
2. पीटर वारविक (सम्पा.) (1980), द साउथ अफ़्रीकन वार : एंग्लो-बोअर वार, 1899-1902, लोंगमेन, लंदन.
3. केविन शिलिंगटन (1987), हिस्ट्री ऑफ़ साउथ अफ़्रीका, लोंगमेन ग्रुप, हांगकांग.
बाहरी कड़ियाँ
[संपादित करें]- The evolution of the white right
- A comprehensive timeline of the peace process negotiations during the 1980s and 90s.
- History of the freedom charter SAHO
- Full text of the UN convention on apartheid
- Apartheid Museum in Johannesburg
- The Effect of Sanctions on Constitutional Change in SA
- "Today it feels good to be an African" - Thabo Mbeki, Cape Town, 8 मई 1996
- - South Africa: Overcoming Apartheid, Building Democracy: A curricular resource for schools and colleges on the struggle to overcome apartheid and build democracy in South Africa, with 45 streamed interviews with South Africans in the struggle, many historical documents and photographs, and educational activities for teachers & students.
- - African Activist Archive: An online archive of materials of the solidarity movement in the U.S.A. that supported the struggle against apartheid and for African freedom, including documents, posters, streamed interviews, t-shirts, photographs, campaign buttons, and remembrances.