संयुक्त राष्ट्र न्यास परिषद
यूएन ट्रस्टीशिप काउंसिल के चैंबर, संयुक्त राष्ट्र संघ मुख्यालय, न्यूयॉर्क | |
स्थापना | 1945 |
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प्रकार | प्रमुख अंग |
वैधानिक स्थिति | निष्क्रिय |
प्रमुख |
अध्यक्ष
उपाध्यक्ष
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जालस्थल |
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संयुक्त राष्ट्र न्यास परिषद; United Nations Trusteeship Council; न्यास परिषद के पांच सदस्यों में सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्य ही शामिल होते हैं इसकी स्थापना ऐसे न्यास प्रदेशों के पर्यवेक्षण हेतु की गयी थी, जहां द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद स्वायत्त शासन की शुरूआत नहीं हो सकी थी। न्यास प्रदेशों को संयुक्त राष्ट्र चार्टर के अध्याय XII के अनुसार अंतरराष्ट्रीय न्यास व्यवस्था के अधीन रखा गया था। इस व्यवस्था का उद्देश्य अंतरराष्ट्रीय शांति व सुरक्षा को बनाये रखना, न्यास प्रदेशों की जनता के हितों को सवर्धित करना बिना किसी भेदभाव के मानव-अधिकारों एवं मौलिक स्वतंत्रताओं के प्रति सम्मान को बढ़ावा देना तथा सभी न्यास क्षेत्रों में संयुक्त राष्ट्र के सदस्य देशों का उनके नागरिकों के साथ समान व्यवहार को सुनिश्चित करना है। मूल रूप में 11 न्यास प्रदेश थे। न्यास परिषद का कार्य इन क्षेत्रों में स्वतंत्र या स्वायत्त शासन की स्थापना में सहायता देना था। 31 अक्टूबर, 1994 तक सभी न्यास प्रदेशों को पृथक्रा ज्यों या पड़ोसी देशों के साथ विलीनीकरण के रूप में स्वतंत्रता प्राप्त हो चुकी थी। पलाऊ द्वीप समूह ऐसा अंतिम न्यास क्षेत्र था, जिस पर संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा प्रशासन किया जा रहा था। पलाऊ में सुरक्षा परिषद द्वारा न्यास समझौता समाप्त किये जाने के पश्चात् 1 नवंबर, 1994 को न्यास परिषद ने अपने कार्य औपचारिक रूप से निलंबित कर दिये। फिर भी, न्यास परिषद का विघटन नहीं किया गया था। यह इस प्रावधान के साथ अस्तित्व में बनी रही कि आवश्यकता के अनुसार इसे पुनः क्रियाशील किया जा सकता है। हाल ही में, न्यास परिषद की भूमंडलीय पर्यावरण व संसाधन प्रणाली के न्यासी रूप में उपयोग करने का प्रस्ताव भी सामने रखा गया है।
अधिदेश पद्धति
[संपादित करें]अधिदेश पद्धति प्रथम विश्वयुद्ध के पश्चात् राष्ट्र संघ द्वारा स्थापित वह व्यवस्था थी, जो जर्मनी एवं तुर्की से छीने गए औपनिवेशिक प्रदेशों के प्रशासन हेतु स्थापित की गई थी। इसको शासित प्रदेशों के अंतरराष्ट्रीय नियंत्रण की दिशा में विश्व का प्रथम प्रयोग माना गया। इस व्यवस्था ने मित्र राष्ट्रों में विद्यमान आदर्शवाद व प्रतिकार की भावनाओं के विलक्षण मेल की व्यक्त किया। अधिदेश पद्धति का श्रेय जान स्मट्स (Jan Smuts) को जाता है। परंतु इस पद्धति की अपनाने का सुझाव सबसे पहले जी.एल. बीयर (G.L. Beer) द्वारा रखा गया। बीयर अमेरिकी राष्ट्रपति वुडरो विल्सन के पेरिस स्थित स्टाफ का सदस्य था। अधिदेश पद्धति वर्साय में हुए समझौते का परिणाम थी, वर्साय की संधि पर 28 जून, 1919 को वर्साय में हस्ताक्षर किए गए। यह संधि पेरिस शांति सम्मेलन (1919-20) का एक भाग थी, जिसने औपचारिक रूप से प्रथम विश्वयुद्ध की समाप्ति की, यह व्यवस्था राष्ट्र संघ की प्रसंविदा के अनुच्छेद XXII में अधिष्ठित की गई थी। प्रथम विश्वयुद्ध (1914-18) की समाप्ति के तुरंत बाद जर्मनी तथा तुर्की के उपनिवेशों को छीनकर उनके नियंत्रण व प्रशासन का अधिकार राष्ट्र संघ के सदस्य देशों को सौंपा गया। ऐसे उपनिवेशों की अधिदेश (mandate) तथा प्रशासक देश को अधिदेशक शक्ति कहा गया। अधिदेशक शक्तियों को यह कर्तव्य सौंपा गया कि वे अधिदेशित प्रदेशों के उत्थान के लिए भरसक प्रयास करें ताकि अंततः ये प्रदेश स्वशासन के योग्य बन सकें। इस विषय में अधिदेशक शक्तियों को प्रतिवर्ष अपना प्रतिवेदन राष्ट्र संघ को देना पड़ता था। इस प्रक्रिया के पर्यवेक्षण के लिए एक स्थायी अधिदेश आयोग की स्थापना की गई। इस आयोग को ये अधिकार दिए गए कि वह अधिदेशक शक्तियों से प्रतिवेदन प्राप्त करे, याचिकाओं की सुनवाई करे तथा राष्ट्र संघ को अपनी अनुशंसाएं दें। चौदह अधिदेशित प्रदेशों को उनके विकास की मात्रा के अनुसार तीन श्रेणियों- क, ख तथा ग में बांटा गया।
श्रेणी ,क
[संपादित करें]श्रेणी क के अधिदेशित प्रदेशों की प्रत्याशित रूप से स्वतंत्र राष्ट्रों के रूप में मान्यता दी गई परंतु यह भी माना गया कि इनको शीघ्र ही राष्ट्र के रूप में पहचान बनाने के लिए सहायता की आवश्यकता है। तुर्की के उपनिवेश, यथा- इराक, फिलिस्तीन, ट्रांस-जॉर्डन ग्रेट ब्रिटेन को सौंपे गए जबकि सीरिया व लेबनान, फ्रांस की सौंपे गए।
श्रेणी, ख
[संपादित करें]श्रेणी ,ख के अधिदेशित प्रदेशों की अधिक सहायता की आवश्यकता थी। प्रशासनिक आवश्यकता के कारण इनकी स्वतंत्रता की विलम्बित किया जाना था। इन प्रदेशों में तंगानियका ग्रेट ब्रिटेन को सौंपा गया जबकि कैमरून एवं टोगोलैंड ग्रेट ब्रिटेन एवं फ्रांस को तथा रुआंडा एवं यूरुण्डी बेल्जियम की सौंपे गए।
श्रेणी,ग
[संपादित करें]श्रेणी ,ग के अधिदेशित प्रदेशों का प्रशासन अधिदेशक शक्तियों के एकीकृत भाग के रूप में किया जाना था। अतः इन प्रदेशों को प्रत्यक्ष शासन के अंतर्गत रखा गया। इस श्रेणी के अधिदेशित प्रदेशों को आत्म-निर्णय का अधिकार देने की संभावना बहुत कम थी। द.प. अफ्रीका द. अफ्रीकी संघ को सौंपा गया, पश्चिमी सीमाया न्यूजीलैंड को, जबकि न्यू गिनी व दक्षिणी प्रशांत द्वीप आस्ट्रेलिया को सौंपे गए उत्तरी प्रशांत द्वीपों को जापान व ग्रेट ब्रिटेन के अंतर्गत रखा गया जबकि नौरू संयुक्त रूप से ग्रेट ब्रिटेन, आस्ट्रेलिया व न्यूजीलैंड को सौंपा गया। अधिदेश पद्धति 1947 में समाप्त हो गई। इस समय तक अधिकांश अधिदेशित प्रदेश स्वतंत्र हो चुके थे। इन प्रदेशों में इराक, सीरिया, लेबनान तथा जार्डन सम्मिलित थे। संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना के बाद अधिदेश पद्धति के अंतर्गत बचे प्रदेशों को 18 अप्रैल, 1946 को संयुक्त राष्ट्र न्यास परिषद के अंतर्गत ले लिया गया। इस न्यास व्यवस्था में प्रदेशों का प्रशासन पहले की अधिदेशक शक्तियों द्वारा ही किया जाना था परंतु इन पर संयुक्त राष्ट्र न्यास परिषद तथा महासभा का नियंत्रण रखा गया। यह व्यवस्था अधिदेश व्यवस्था का ही नया रूप था, जिसका उद्देश्य तो वही था परंतु क्षेत्र व्यापक था यद्यपि यह माना जाता है कि औपनिवेशिक पद्धति को समाप्त करने में अधिदेश पद्धति की महत्वपूर्ण भूमिका थी परंतु कुछ आलोचकों का विचार है कि वास्तव में इसने अधिदेशित प्रशासन के नाम पर अधिदेशक शक्तियों द्वारा इराक, लेबनान, टोगोलैंड तथा नामीबिया जैसे प्रदेशों में औपनिवेशवाद के बुरे से बुरे रूप को प्रदर्शित किया। शूमैन (Shuman) के अनुसार, “निराशावादियों ने इस व्यवस्था पर पाखंडपूर्ण होने का आरोप लगाया। उनका कहना है कि इसकी स्थापना पुराने साम्राज्यवादी भेड़िए को भेड़ के छदम् रूप में प्रस्तुत करने के लिए की गई थी।”