लय
प्रकाशितकोशों से अर्थ
[सम्पादन]शब्दसागर
[सम्पादन]लय ^१ संज्ञा पुं॰ [सं॰]
१. एक पदार्थ का दूसरे पदार्थ में मिलना या घुसना । प्रवेश ।
२. एक पदार्थ का दूसरे पदार्थ में इस प्रकार मिलना कि वह तद्रूप हो जाय उसकी सत्ता पृथक् न रह जाय । विलीन होना । लीनता । मग्नता ।
३. चित्त की वृत्तियों का सब ओर से हटकर एक ओर प्रवृत्त होना । ध्यान में डूबना । एकग्रता ।
४. लगना । गूढ़ अनुराग । प्रेम । उ॰—मन ते सकल वासना भागी । केबल राम चरण लय लागी (शब्द॰) । क्रि॰ प्र॰—लगना ।
५. कार्य का अपने कारण में समाविष्ट होना या फिर कारण के रूप में परिणत हो जाना ।
६. सृष्टि के नाना रूपों का लोप होकर अव्यक्त प्रकृति मात्र रह जाना । प्रकृति का विरूप परिणाम । जगत् का नाश । प्रलय । उ॰—जो संभव, पालन लय कारिनि । निज इच्छा लीला वपु धारिनि ।—तुलसी (शब्द॰) ।
७. विनाश । लोप । उ॰—गो वहेउ हरि बैकुंठ सिधारे । शमदम उनहौं संग पधारे । तप तंतोष दया अरु गयो । जान यमादि सबै लय भयो ।—सूर॰, १ । २९० ।
८. मिल जाना । सश्लेष ।
९. संगीत में नृत्य, गीत वाद्य की समता । नाच, गाने और बाजे का मेल । विशेष—यह समता नाचनेवाले के हाथ, पैर, गले और सुँह से प्रकट होती है । संगीत दामोदर में हृदय, कंठ और कपाल लय के स्थान माने गए हैं । कुछ आचार्यो ने लय के द्विपदी, लतिका और झल्लिका इत्यादि अनेक भेद माने हैं ।
१०. स्थिरता । विश्राम ।
११. मूर्छा । बेहीशी ।
१२. ईश्वर । ब्रह्म । परमेश्वर (को॰) ।
१३. आलिंगन (को॰) ।
१४. वाण का नीचे की ओर तीव्र गमन (को॰) । वह समय जो किसी स्वर को निकालने में लगता है । विशेष यह तीन प्रकार का माना गया है । द्रुत, मध्य और विलंबित ।
१६. एक प्रकार का पाटा जिससे वैदिक काल में खेत जोतकर उसकी मिट्टी को सम या बराबर करते थे । इसका उल्लेख शुक्ल यजुर्वेद की वाजसनेय संहिता में है ।
लय ^२ संज्ञा स्त्री॰
१. गाने का स्वर । गाने में स्वर निकालने का ढंग । जैसे,—वह बड़ी सुंदर लय से गाता है ।
२. गीत गाने का ढंग या तर्ज । धुन ।