जलालुद्दीन ख़िलजी
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दिल्ली सल्तनत के खिलजी वंश का शासक। जलालुद्दीन फ़िरोज ख़िलजी (1290-1296 ई.) 'ख़िलजी वंश' का संस्थापक था। इसने अपना जीवन एक सैनिक के रूप में शुरू किया था। अपनी योग्यता के बल पर इसने 'सर-ए-जहाँदार/शाही अंगरक्षक' का पद प्राप्त किया तथा बाद में समाना का सूबेदार बना। कैकुबाद ने इसे 'आरिज-ए-मुमालिक' का पद दिया और 'शाइस्ता ख़ाँ' की उपाधि के साथ सिंहासन पर बिठाया। इसने दिल्ली के बजाय किलोखरी के मध्य में राज्याभिषेक करवाया। सुल्तान बनते समय जलालुद्दीन की उम्र 70 वर्ष की थी। दिल्ली का वह पहला सुल्तान था जिसकी आन्तरिक नीति दूसरों को प्रसन्न करने के सिद्धान्त पर थी।जलाल-उद-दीन खिलजी, जिसे फ़िरोज़ अल-दीन खिलजी या जलालुद्दीन खिलजी (फ़ारसी: جلالالدین خلجی; सी. 1220 - 19 जुलाई 1296, आर. 1290-1296) के नाम से भी जाना जाता है, खिलजी वंश का संस्थापक और पहला सुल्तान था जिसने 1290 से 1320 तक भारत के दिल्ली सल्तनत पर शासन किया।
मूल रूप से फ़िरोज़ नाम से जाने जाने वाले जलाल-उद-दीन ने अपना करियर मामलुक राजवंश के एक अधिकारी के रूप में शुरू किया और सुल्तान मुइज़ुद्दीन कैकाबाद के अधीन एक महत्वपूर्ण पद पर पहुँचे। कैकाबाद के पंगु हो जाने के बाद, रईसों के एक समूह ने उसके शिशु बेटे शम्सुद्दीन कयूमर्स को नया सुल्तान नियुक्त किया और बाद में जलाल-उद-दीन को मारने की कोशिश की। इसके बजाय, जलाल-उद-दीन ने रईसों के समूह को मार डाला और रीजेंट बन गया। कुछ महीने बाद, उन्होंने कयूमर को पदच्युत कर दिया और नए सुल्तान बन गए।
सुल्तान के रूप में, उन्होंने मंगोल आक्रमण को विफल कर दिया और कई मंगोलों को इस्लाम में धर्मांतरण के बाद भारत में बसने की अनुमति दी। उन्होंने चाहमान राजा हम्मीरा से मंडावर और झाईन पर कब्ज़ा कर लिया, हालाँकि वे चाहमान की राजधानी रणथंभौर पर कब्ज़ा करने में असमर्थ थे। उनके शासनकाल के दौरान, उनके भतीजे अली गुरशस्प ने 1293 में भीलसा और 1296 में देवगिरी पर हमला किया।
जलाल-उद-दीन, जो अपने राज्यारोहण के समय लगभग 70 वर्ष के थे, आम जनता के बीच एक सौम्य, विनम्र और दयालु सम्राट के रूप में जाने जाते थे। अपने शासनकाल के पहले वर्ष के दौरान, उन्होंने शाही राजधानी दिल्ली के पुराने तुर्किक रईसों के साथ टकराव से बचने के लिए किलोखरी से शासन किया। कई रईसों ने उन्हें एक कमज़ोर शासक माना और अलग-अलग समय पर उन्हें उखाड़ फेंकने का असफल प्रयास किया। उन्होंने विद्रोहियों को बहुत कम सज़ा दी, सिवाय एक दरवेश सिदी मौला के मामले में, जिसे कथित तौर पर उसे गद्दी से हटाने की साजिश रचने के लिए मार दिया गया था। जलाल-उद-दीन की अंततः उसके भतीजे अली गुरशस्प ने हत्या कर दी, जो बाद में अलाउद्दीन खिलजी के नाम से गद्दी पर बैठा।
राज्याभिषेक एवं उपलब्धियाँ
[संपादित करें]जलालुद्दीन ने अपने राज्याभिषेक के एक वर्ष बाद दिल्ली में प्रवेश किया। उसने अपने पुत्रों को ख़ानख़ाना, अर्कली ख़ाँ, एवं क़द्र ख़ाँ की उपाधि प्रदान की। जलालुद्दीन फ़िरोज ख़िलजी ने अपने अल्प शासन काल में कुछ महत्त्वपूर्ण उपलब्धियाँ प्राप्त कीं। इन उपलब्धियों में उसने अगस्त, 1290 में कड़ामानिकपुर के सूबेदार मलिक छज्जू, जिसने ‘सुल्तान मुगीसुद्दीन’ की उपाधि धारण कर अपने नाम के सिक्के चलवाये एवं खुतबा (प्रशंसात्मक रचना) पढ़ा, के विद्रोह को दबाया। इस अवसर पर कड़ामानिकपुर की सूबेदारी उसने अपने भतीजे अलाउद्दीन ख़िलजी को दी। उसका 1290 ई. में रणथंभौर का अभियान असफल रहा। 1292 ई. में मंडौर एवं झाईन के क़िलों को जीतने में जलालुद्दीन को सफलता मिली। दिल्ली के निकटवर्ती क्षेत्रों में उसने ठगों का दमन किया। 1292 ई. में ही मंगोल आक्रमणकारी हलाकू का पौत्र अब्दुल्ला लगभग डेढ़ लाख सिपाहियों के साथ पंजाब पर आक्रमण कर सुनाम पतक पहुँच गया, परन्तु अलाउद्दीन ने मंगोलों को परास्त करने में सफलता प्राप्त की और अन्त में दोनों के बीच सन्धि हुई। मंगोल वापस जाने के लिए तेयार हो गये। परन्तु चंगेज़ ख़ाँ के नाती उलगू ने अपने लगभग 400 मंगोल समर्थकों के साथ इस्लाम धर्म ग्रहण कर भारत में रहने का निर्णय लिया। कालान्तर में जलालुद्दीन ने उलगू के साथ ही अपनी पुत्री का विवाह किया और साथ ही रहने के लिए दिल्ली के समीप 'मुगरलपुर' नाम की बस्ती बसाई गई। बाद में उन्हें ही ‘नवीन मुसलमान’ के नाम से जाना गया।
क्रूर व्यक्ति
[संपादित करें]जलालुद्दीन ने ईरान के धार्मिक पाकीर सीदी मौला को हाथी के पैरों तले कुचलवा दिया था। जलालुद्दीन के शासन काल में ही उसकी भतीजे अलाउद्दीन ख़िलजी ने शासक बनने से पूर्व ही 1292 ई. में अपने चाचा की स्वीकृति के बाद भिलसा एवं देवगिरि में लूट-मार का काम किया। उस समय देवगिरि को लूटना मुस्लिमों का दक्षिण भारत पर प्रथम आक्रमण था। इन दोनों स्थानों पर लूट-मार से अलाउद्दीन को अपार सम्पत्ति प्राप्त हुई।
हत्या
[संपादित करें]जलालुद्दीन ख़िलजी की हत्या इसके भतिजे एवं दामाद अलाउद्दीन ख़िलजी ने अपने भाई अलमास वेग की सहायता से 1296 ई० को कड़ामानिकपुर(इलाहाबाद) में की, जिसे बाद में 'उलूग ख़ाँ' की उपाधि से विभूषित किया गया। इस प्रकार अलाउद्दीन ख़िलजी ने चाचा की हत्या कर दिल्ली के तख्त पर 22 अक्टूबर 1296 को बलबन के लाल महल में अपना राज्याभिषेक करवाया। जलालुद्दीन ख़िलजी का शासन उदार निरंकुशता पर आधारित था। अपनी उदार नीति के कारण जलालुद्दीन ने कहा था, “मै एक वृद्ध मुसलमान हूँ और मुसलमान का रक्त बहाना मेरी आदत नहीं है।” अमीर खुसरो और इमामी दोनों ने जलालुद्दीन ख़िलजी को भाग्यवादी व्यक्ति” कहा है।
बरनी का कथन
[संपादित करें]अलाउद्दीन ख़िलजी के राज्याभिषेक पर बरनी का कथन है कि, “शहीद सुल्तान (जलालुद्दीन ख़िलजी) के कटे मस्तष्क से अभी रक्त टपक ही रहा था कि, शाही चंदोबा अलाउद्दीन ख़िलजी के सिर पर रखा गया और उसे सुल्तान घोषित कर दिया गया।”jalaluddin khilji Dilli ka ek kamjor sasak tha